Dec 29, 2018

मुक्तक









मुक्तक..

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संदली हवाओं के रुख से आंचल लहराने लगें

पायलों के साज़ों से मंजिल गुनगुनाने लगें

फिर दफ़अतन हुआ यूँ कि-
उल्फतों में ख़सारा ढूंढ वो नज़रे बचाने लगें।

पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍


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सफ़्हो में ही कहीं न कहीं सिमटे रहेंगे

सफर के बाद भी यही कही बिखरे रहेंगे
सिफ़त ज़ीस्त का  हो समझना-
हमारी लफ़्ज़ों की हरारत इनमें  ही निखरे रहेंगे।
    पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

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Dec 15, 2018

अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस..





हौले हौले पियो..
नज़ाकत से  लुत्फ़ उठाओं..
ये चाय है..,
थोड़ी  मीठी थोड़ी कड़वी
जिंदगी की तरह 
धीेमी धीमी..उतरती है
ये चाय है..

International Tea Day☕☕
       

Dec 5, 2018

संस्मरण

लम्हों की सौगातें..
मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी.. 24 अक्टूबर 2018 की सुरमई सुबह की आहट थी। जल्दी- जल्दी घर के सब कामों को निपटा कर  8:00 बजे तैयार थी, आज इनके के साथ ही चलूंगी ताकि कार्यक्रम के आरंभिक भाग से वंचित न  रह  जाउं। बिना किसी लाग लपटें ,पुछ-ताछ के वो तैयार भी हो गए। बेवजह हीं शंकित थी , कहींं   दफ्तर में लेट हो जाने पर शब्द रुपी वाण न चला दे,.और मैं घायल हो मुँह पर बारह न बजा लू..  पर न..वो भी आसानी से तैयार हो गए ।
 ह.. ना.. तो..पर मन के बियाबान जंगल में अक्सर ही एक साथ कई बातें उभर आतें हैंं। उसी झुरमुट के
पत्तों ,काटों,शाखों से कुछ फूलों को समेट इन पन्नों पर शिद्द्त से सजा देती हूँ। अपने  वजूद के साथ शब्दों के तासीर को , इन सबके बीच तलाशती रहती।
 रास्तों में आती-जाती गाड़ियां ,लोगोंं के बनते बिगड़ते चेहरे और जीने की कुछ पाने के जद्दोजहद में ,सब की कहानी अपनी जमीन के साथ तयशुदा दायरें में चलता रहता है। मैं भी अपनी कहानी का एक हिस्सा बताने जा रहे हूँ.. सहोदरी सोपान -५ की भागीदारी में एक भाग पर, पर सच कहूँँ... वैसे तो कभी झूठ नहीं बोलती😁पर बरसो लग जाते हैं , एक किरदार की मुकम्मल तस्वीर बनाने में, "पर जब घिरती हूँँ"  कविता बहुत ही दिल के करीब है, क्योंकि यहाँँ तुम थी माँँ, हमारी " नीयत" की मौजूदगी के साथ जिंदगी की टकराहटोंं से पड़ने वाले घाव मात्र चुभते नश्तर और मुदावा से तकमील नहीं होती , बल्कि एक जोड़ी हाथ, नर्म फाहोंं के भी जरूरत होती है । जो शब्दों में तब्दील होकर " क्यूँ ना फिर मुस्कुरा कर  निभाते रहेंं" में बिखर गई।
खुद के वजूद का अहसास कराती एक खूबसूरत संवेदनशील रचना को शब्दों में समेटने की कोशिश , "हमारी किस्सागोई न हो" इसलिए हकीकत की पनाह में आ गए ,क्योंकि  पूर्णता की ओर निगाह सब की होती है , पर मेरी छोटी- छोटी अधूरी बातें छलक ही जाती है ,कभी अश्कों में, जज्बातों में, कभी रातों में ,ख्वाबों में ,रस्मों रिवाजों में, मातृत्व में, सहचरी बनने की कोशिश में, सच बोल रही हूँँ.. बहुत आगे नहीं, पीछे भी नहीं साथ चलना चाहती हूँँ।
 इन शब्दों की खुलती गिरह और रिश्तों को समेटने की कोशिश को ही शब्दों में भर हल्की हो जाती हूँ।

हद हो गई दरवाजा खोल कर.." अंदर देखोंं कहाँँ क्या हो रहा है.. कितनी देर होगी?
 मन के पन्नेंं, भावोंं का स्पंदन इसके के रोबीले आवाज से ठहर गई...
 "अरे!वाहह..  पहुँँच भी गई.. वो भी मन के उपांतसाक्षी को वहीं छोड़ बोली.. मतलब..  तुम जाओ.. लंच बॉक्स ले लेना.. बाय!! और आगे बढ़ गई.. पर जानी पहचानी आहटों से यह क्या.. तुम गए नहीं.."
"पहले पता करो कहाँँ हो रहा है.. तुम्हारा सेमिनार ..मेट्रो से लौट जाना"
" मैं भी मूँह बना कर बोली.. शाम जब तुम ऑफिस से जाना तो मुझे भी ले लेना.. सालों बाद तो एक ही मौका मिला है तुम लाभ उठाओ.. जानती हूँँ  तुम आओगे भी थोड़ा खिन्नता दिखाकर .. जनाब के आसानी से  बोल तो फूट ही नहीं सकते.. वह भी आसानी से ..
 मैं फोन कर दूंगींं.."
 "ओके !!"
सधे कदमों से ऑडिटोरियम की ओर  'भाषा सहोदरी हिंदी " तरफ से हंसराज कालेज दिल्ली में दो दिवसीय छठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। साहित्य की दुनिया में तमाम नामी गिरामी हस्तियों के बीच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष आदरणीया मैत्रीय पुष्पा जी एवं हंसराज कॉलेज  प्राचार्या डॉ रमा शर्मा जी ,पद्मश्री  डा०सी. पी. ठाकुर जी ,मान्यवर जितेंद्र मणि त्रिपाठी(डी.सी.पी.) साहित्यकार के मुख्य आतिथ्य व सानिध्य में हंसराज कालेज, दिल्ली के सभागार से मानों कार्यक्रम में चार चाँँद लग गया ।
व्याख्यान में कथा ,लघु कथा के लेखन विधा के साथ साथ मौजूद विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया।
हिंदी में कार्य प्रणाली को बढ़ावा देने के साथ न्यायालय की भाषा बनाने पर विशेष जोर दिया गया जिस पर आदरणीय डॉक्टर सीपी ठाकुर राजसभा सांसद पद्मश्री अपने विचारों को व्यक्त किए।
 पर इन सबों से भी ऊपर यह बात रही कि दक्षिण भारत से बहुत लोग इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए और पत्रिका के विमोचन में मुख्य भूमिका निभाई देश के हर राज्य से लोगों ने अपनी मौजूद मौजूदगी दर्ज कराई । मंच  से स्वरचित काव्य पाठ की अविस्मरणीय प्रस्तुति से वो अनमोल घड़ी एक सुखद पल के साथ एक आत्मसाक्षात्कार का क्षण बना।दूसरे दिन २५ अक्टूबर२०१८ साझा संकलन (लघुकथा, कविता) पुस्तक का लोकार्पण मुख्य अतिथि द्वारा किया गया। जिसमें मेरी प्रतिभागिता सहोदरी सोपान ५ में पृष्ठ संख्या 165-168 में ,सम्मिलित है। इस पुस्तक के माध्यम से देश विदेश के विभिन्न रचनाकारों को पन्नों में सहेजना बराबर है मानो जमीन पर तारों की झिलमिलाहट पन्नों में उतर आया है। एक सहज,शालीन आवरण के साथ पन्नों को पलटते ही दृष्टि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संदेश पर ठहर जाती जिनका हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी शब्दकोशीय को दृष्टिगत कर रचनाकारों की पृष्ठ बनाया गया है। हर प्रांत ,पृष्ठभूमि से जुड़े पाठकों के लिए सहोदरी सोपान पाठकों के लिए सहस्रों धाराओं के समान फूटने,खिलने के साथ एक राह बनाती  पुस्तक है।
सच है...सृजनशीलता के तले एक शांत नदी बहती रहती..जो इस पुस्तक के माध्यम से पृष्ठों के सतहों पर बही,जहाँ प्यास बुझती नहीं बल्कि  शदीद से बढ़ जाती है।
कई अंजान चेहरों के बीच में एक डोर था ,और वो था शब्दों का डोर। किताबों के साथ  हाथों में आते ही  सबके हाथों के साथ नज़रें भी रक्स़ करने लगती और एक ग्रुप फोटों के साथ कार्यक्रम सहोदरी हिंदी भाषा आदरणीय जयकांत मिश्रा जी के तत्वावधान में समापन हुआ। यूँ तो कार्यक्रम काफी सफल रहा पर बेहतर बनाने के लिए कुछ सुझावों के साथ अगला कार्यक्रम हो तो और भी बढिया होगा.. जैसे..तेजी से भागते समय और ढ़लती शामों  से लेखकों को प्रकाशित पुस्तकों को लेने में कुछ परेशानियों से रूबरू होना पड़ा जिसे सम्मानित पत्र और मेडल के साथ देकर दूर किया जा सकता है।साथ ही थैले का भी इंतजाम जिसका मूल्य सहयोग राशि में ले लिया जाए। क्योंकि  भूमंडलीकरण के दौर के साथ बदलते यथार्थ के आयामों संग चलना भी जरूरी है।
अक्टूबर की हल्की ठंड पड़ती शाम, घड़ी की ४:३०बजे के साथ बसेरे की ओर इशारा कर रही थी। (अंतर्मन से आती आवाज़ हौले से बोली क्या लिख रही हो..संस्मरण ..कौन सा झंडा बुलंद कर ली..कई किताबें छपती है...पर..मैं भी न..शाद सी..नाशाद सी...कलम और मन कभी कभी रुकते नहीं।)
वहाँ बिताए कुछ पल स्मृतियों में दर्ज कर एक जहीन कोना सजाया जो रह रह कर एहसास कराता है..होने का..वजूद का..जिसमें मैं अक्सर बुनती, पिरोती रहती हूँ.. कभी कोई सपने, कभी मन कोनो में हँसती, बिसूरती यादें. है..न..ये लम्हों की सौगातें।
पम्मी सिंह'तृप्ति'...✍






















Nov 18, 2018

माहिया




माहिया 
1
रंग की धारा गुनती
पिया की आश में
भावों के रंग बुनती।

2
 सपनें कई निहारें
 टोह रही गोरी
संदली पांव उतारें

3
हसरतों में भीगते
नम होती आँखें
मुंतज़िर शाद वफा के।
4
दर्पण  हसरतों की
कई बातों की
इंतजार वस्ल की।
                                  पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

Oct 12, 2018

अब कहाँ..










अब कहाँ…


हैं ये मौसम ही
वक्त के साथ गुजर ही जाएगा
पर क्या...?
आनेवाली जिन्दगियों को गुदगुदाएगा
किए हैं बेजार हमने ही बस्तियों को
अब कहाँ..
बारिशों में कागज के नाव के वो नाखुदा खिलखिलातें हैं..

तारों जमीं की चाह में
किए हैं कई रातें आँखों में तमाम 
पर क्या..?
अश्कों की बातों पर 
पलकों की नमी कह नज़रें गमगुसार किए
अब कहाँ..
रात के आगोश में उल्फ़त से भरे खत लिखे जाते हैं

क्या अच्छा हो!
जो कभी ख्वाहिशों से मुलाकात हो
पर क्या..?
बंद दरवाजें पर दस्तकों से 
मुस्कराने की बात पर वो पलकें भी निसार होगी
अब कहाँ..
चकोर चाँद पर  मचलते हैं..

लफ्जों का असर जाता नहीं
भूलने की कोशिशें से भी भूलाया जाता नहीं
पर क्या ..?
इन लहजों -लहजों ,सलीको  से फर्क  आता नहीं..
अब कहाँ
अल्फाज़ों के दोश पर लोग सवार रहते हैं

ये जो बेहतरी का इल्म लिए फिरते हैं
वो आधी हकीकत है
पर क्या..?
अना की जिद में आइना संगसार नहीं करते
अब कहाँ..
वो काँपते हाथों की हिदायतों पर मौन सजाएँ जाते हैं।
   पम्मी सिंह 'तृप्ति..✍

(दोश:कन्धा )

साहित्यिक स्पंदन में प्रकाशित नज्म..
💠
                                  💠

Sep 27, 2018

फिर क्यूँ तुम..



विधाः गज़ल
विषय: बाजार


हसरतों के बाजार में सब्र की आजमाइश है
फिर क्यूँ तुम तड़पते विस्मिल की तरह।

बाजार-ए-दस्त में  खड़ा जज़्ब-ए-फाकाकश है 
फिर क्यूँ ये वादे साइल की तरह।

तिजारत-सरे-बाजार में तलबगार खुश है
फिर क्यूँ तुम गुजरे गाफिल की तरह।

शोख,वफा,जज़्ब में हिज्र की आजमाइश है
फिर क्यूँ ये ठहरे साहिल की तरह।

ताजिरो की नियाज से आलिमों की जुबां खामोश है
फिर क्यूँ तुम तड़पे दुआ-ए-दिल की तरह।
                                  ©पम्मी सिंह 'तृप्ति'.. ✍
(गाफिल-भ्रमित, विस्मिल-घायल, साइल-याचक,
ताजिरो-व्यापारी, तिज़ारत-रोजगार, व्यपार, तलबगार- इच्छा रखना, नियाज-भिक्षा, दुआ ए दिल-हृदय की प्रार्थना, जज्ब ए फाकाकश-भूखे रह जीने की भावना)

Sep 25, 2018

स्त्री विशेष कहानी




"बिखरते पलछिन", को प्रतिलिपि पर पढ़ें : https://hindi.pratilipi.com/story/x4ywR76Oj5iv?utm_source=android&utm_campaign=content_share भारतीय भाषाओँ में अनगिनत रचनाएं पढ़ें, लिखें और दोस्तों से साझा करें, पूर्णत: नि:शुल्क

Sep 20, 2018

Sep 13, 2018

सायली छंद

सायली छंद



तुम्हें
ख्याल नहीं
किताबों के गुलाब
आज भी
मुस्कुराते।

🌸

तुमने
जो थामा
कोमल उँगलियों से,
मन मुदित
हुआ।

🌸

स्नेह
से संवरकर
संदल हाथों ने
घर बना
दिया।

🌸

गुजरी
तुफानो से
हालत से संभलकर,
हिदायतें लिख
दी।

🌸

बिखरे
फूल पत्तियाँ,
शीतल आस लिए
आंचल समेटे
बैठी।

🌸
©पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

Sep 3, 2018

जय श्री कृष्णा



।।दोहे।।

कर्तव्य पाठ के ज्ञान में,है प्रभु का नित नाम।
धन्य हुआ गोकुल धाम,आपको नित प्रणाम।।


कुरुक्षेत्र की रणभूमी से, बांचे मोक्ष,मुक्ति ज्ञान।
गीता का सार अनुप ,कर्म ही  सदा प्रधान।।
                 पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍


Aug 31, 2018

दोहे..



31अगस्त2018
दोहे
विषयःमुनि



1.

मुनि औरों का हित करें,चाहे नित आत्म ज्ञान ।
सच्चे मन से मनन करें, मिल जाएँ भगवान।।

2.
धुनी रमाकर हित करें,अंधकार को दूर।
निज हित से उपर रहे, उस पर रब का नूर।।

3.
तिलक तावीज से भान,  घूमते चहूँ ओर।
सद्गुण ही पावन निधान, क्यूँ  करते सब शोर।।

4.
सद् मुनि  वंदन चिर निरुपम, करते जग का ज्ञान।
सृष्टि वंदन चिर निरुपम, इसका भी करों ध्यान।।

5.
 दिव्यपुंज करते समस्त  भाव को,जोड़ते हर
विधान।
निश्च्छल करते हृदय को,हैं सारे एक समान।।


6.
श्रेय और प्रेय के भाव, अपने मन का पीर।

तृष्णा है सबके भाव, रख लो मन का धीर
                       © पम्मी सिंह 'तृप्ति'.✍

Aug 20, 2018

सृष्टि चिर निरुपम...




सृष्टि चिर निरुपम
अंतर्मन सा अनमोल भ्रमण 
आत्मा का न संस्करण 

किंजल्क  स्वर्ण सरजीत
समस्त भाव
दिव्यपुंज दिव्यपान
प्रज्ञा का भाव

जागृत सुप्तवस्था
निर्गुण निर्मूल
अविवेका,

निः सृत वाणी
अस्तु आरम्भ
सदा निर्विकारी

कर्म अराधना
विकर्म विवेकशून्य
निष्काम कर्मयोग अनुशीलन

संघर्षरत वृत्ति
यदा कदा प्राप्तव्य
अज्ञान निवृत्ति 
यजन प्रवृत्ति

संसृति संकल्प
श्रेय और प्रेय विकल्प
व्यष्टिक चेतना अल्प
जटिल सार्विक क्रियाकलाप

स्वार्थ सर्वव्यापी
संकल्पता,साकारात्मक
यथार्थ जीवन का
प्रतिपादित कर्म

                                     ©पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍






Jul 25, 2018

लाजिमी है सियासत ..





भीड़ तंत्र पर बात चली हैं,एक छत के आस में
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,

आह,वाह..अना,.अलम,आस्ताँ के खातिर
आजकल हुजूम के कारोबार की हवा खूब चली हैं,

दर -ओ-दम निकाल कर ,बे-हिसाब बातों पर
शानदार इबारतें में ,शान्ति की राह निकली हैं,

शहरों के तमाम लफ़्जी बयां के मंजर देख
आँखों पर कतरन बाँध, अब नई राह निकली है,

बिसात किसी और की ,शह ,मात के जद़ में
चंद लोगों को मोहरा बनाने की बात चली हैं,

कलम भी तेरी ,दवात भी तेरी,तजाहुल भी तेरी
अब हर बात पे सफ़हे भी लाल  हो चली हैं,

रंग बदला,मिजाज बदला और वो हुनर निखरा
जहाँ पत्थर-दिल इंसानों की फितरत खूब बदली हैं,

एक मुक्कमल सहर के खातिर,हवाओं के रूख भाप
आदम की किस्मत को फ़र्क करने की तस्बीह खूब चली हैं,

लाजिमी हैं सियासत हैं ..और
सियासत में, सवाल,बवाल,मलाल की ही चली हैं,

पर जब बात यूँ निकली तो सवाल हैं ..
इबादत न सही पर क्या?
कभी दिलों के मौसम बदलने वाली बात चली हैं. ..

                                  पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍


(तस्बीह-जप करने की माला, अना-स्वाभिमान,अलम-दुख,शोक,तजाहुल-जान बूझकर अनजान बनना, सफ़हे -पन्ना,आस्ताँ-चौखट,



Jun 25, 2018

राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका..



राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका






 अंधकार है वहाँ - जहाँ आदित्य नहीं।
  मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं।।

वर्तमान में लोकतंत्र और बदलाव की राजनीति का  शोर है   लेकिन साहित्य और संस्कृति इसकी पृष्ठभूमि में कहाँ है।
राजनीति में बदलाव सर्वव्यापक है जिसका प्रभाव हमारे समाज पर पड़ता है । सवाल उठता है कि आखिर कहाँ तक साहित्यकार राजनीति को प्रभावित करते हैं ।
राजनीति का संबध जहाँ शासन पद्धति से तो वहाँ साहित्य का संबंध जीवन पद्धति से जुड़ा है । समयानुकूल   राजनीति अब समाज केंद्रित हो रहा है । ऐसे माहौल में साहित्यकारों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। “साहित्य” का अर्थ शब्द और अर्थ को यथावत सहभाव है ।  साहित्य और राजनीति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध है। जो सोपान की तरह  जो कभी नीचे से ऊपर की और तो कभी ऊपर से नीचे की ओर बढ़ती है । दोनों का उद्देश्य जन कल्याण की भावना से प्रेरित है ।
प्रेमचंद जी ने समाज और राजनीति के आपसी संबंधों के बारे में कहा
 “ जिस भाषा के साहित्य का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छे होने पर स्वभावतः राजनीति भी अच्छी होगी। यह तीनों साथ - साथ चलने वाली चीजें हैं । इन तीनों का उद्देश्य ही जो  एक है। यथार्थ में समाज, साहित्य और राजनीति का मिलन बिन्दू है।“
साहित्य समाज में व्याप्त राजनीतिक, सामाजिक गति-विधि को दर्शाता है । जो घटनाएँ, नीतियाँ और परिस्थितियाँ समाज के अस्तित्व में आती है । साहित्यकार उनके शब्दों के माध्यम से प्रकट करता है । साहित्य स्वयमेव शक्ति संपन्न है । यह ना सिर्फ राजनीतिक दल की वैज्ञानिक प्रगति , आर्थिक उन्नति सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतिनिधित्व करता है।
 साहित्य और राजनीति के कार्यक्षेत्र भिन्न है, फिर भी लक्ष्य एक जो समाज का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर प्रगतिशील समाज का निर्माण में सहायक है। 
 स्वच्छ समाज का निर्माण भी तभी संभव है जब तक साहित्यकारों की कलम किसी  राजनीति की महत्वकांक्षाओं के अधीन ना हो । स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए , क्योंकि साहित्य अनुभूत विचारों का संग्रह है। अतः वर्तमान समय में साहित्यकारों का यह पुनीत कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य का सृजन करें जो राष्ट्र की नीति- निर्धारण में सहायक हो । सत्साहित्य के ही प्रसाद पर राष्ट्र के विकास की नींव आधारित है।
            पम्मी सिंह..✍

Jun 16, 2018

आपकी सरपरस्ती में संवर कर ..


















पापा ..
यूँ तो जहां में फ़रिश्तों की फ़ेहरिस्त है बड़ी ,
आपकी सरपरस्ती  में संवर कर ही
ख्वाहिशों को जमीं देती रही

मगर अब..
 जरा बेताब है मन, घिरती हूँ  धूंधले साये से ,
हमारी तिफ़्ल - वश की ज़िद्द और तल्ख लहजों के गहराइयों को अब
हथेलियों के उष्ण में  हौसलों को तलाशती रही


आपकी बुजूर्गियत ने ही तो हमें बहलायें रखा
उम्मीद करती हूँ हर पल किसी फ़जल का
पर मगा़फिरत की बात पर आपको
हाथ छोड़ कर जाते देखती रही


खबर तो होगी फितरतें बदलता है आस्मां भी
भंवर में निखरना सिखाया हैं आपने ही
हमारे हक़ में था बस इरादा बदलना 
राह के पेचो खम से ग़ुज़रती पर संभलती रही..
©पम्मी सिंह✍

(तिफ़्ल - वश :बच्चों की तरह,फ़जल:कृपा, मगाफिरत:मोक्ष)

May 12, 2018

अर्श पे दर्ज एहकाम ..










ख्वाबों की जमीन तलाशती रही
अर्श पे दर्ज एहकाम की तलाश में कितनी रातें तमाम हुई

इंतजार, इजहार, गुलाब, ख्वाब, वफा, नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई

कुछ तो रहा गया हममें जो जख्म की बातों पर मुस्कराते है
हर सुब्ह संवरता है मानों खिजां में भी फूलों की ऐहतमाम  हुई

जमाने की जद में हम कुछ और बढ गए
अब रक़ीबो  को एहतिराम करते कितनी 
सुब्हो- शाम हुई

लब सिल लिए अमन की खातिर
ज़रा सी सदाकत पर क्या चली मानो शहर में कोहराम  हुई।

           © पम्मी सिंह'तृप्ति'.✍


(एहकाम-आदेश, ऐहतमाम- व्यवस्था, अर्श-आसमान, एहतिराम-कृपा:आदर, ख़िजा-पतझड़, रक़ीब-प्रतिद्वंदी)

Apr 25, 2018

समीक्षा




काव्यकांक्षी , कवयित्री पम्मी सिंह की कविताओं का पहला संकलन होकर भी भाव और भाषा की दृष्टि से परिपूर्ण है। संकलन की कविताओं में भावना का प्रवाह और अनुभव की कसौटी दोनों ही देखने लायक है। तलाश कविता की पंक्तियां -स्वतंत्रता तो उतनी ही है हमारी जितनी लंबी डोर ! सहज ही स्त्री मन की विवशताओं को  साफगोई से चित्रित करती है, इसी प्रकार कई राह बदल कर, किताबों के चंद पन्ने, निशान धो डालें ,जैसे दर्जनों कविताएँँ हैं जो पाठक के मन -मस्तिष्क को झकझोरती  है। कवयित्री पम्मी सिंह के लगातार लेखन के लिए शुभेच्छा एवं
 'सुरसरि सम सब कहँ  हित होई ' 
की मंगल कामना है।

सुबोध सिंह शिवगीत
हिन्दी विभाग




मैंने पम्मी सिंह के काव्य संकलन "काव्यकांक्षी" की कविताओं को पढ़ा काव्य और शिल्प के स्तर पर कविताएं नयी है। ये हमारे जीवन की संवेदनाओं से जुड़ी है तथा समकालीन मानव - प्रवृत्तियों से  गहरे रूप से जुड़ी है । कवयित्री का अनुभव व्यापक है




पम्मी सिंह की कविताएँँ एक उभरती हुई काव्य प्रतिभा के अंतर्मन की सहज अभिव्यक्ति है। इन कविताओं में कवयित्री के स्वप्न और आकांक्षाओं का प्रगटीकरण बेहद ही सधे अंदाज में हुआ है। मैं पम्मी सिंह की कविता के प्रति समर्पण भाव को देखकर उनके भविष्य में सफलता के प्रति आशान्वित हूँँ।
    भरत यायावर
हिन्दी विभाग
बिनोबा भावे विश्वविद्यालय 

Mar 31, 2018

लफ्ज़ जो बयां ..



















लफ्ज़ जो बयां न हो सका
तन्हाइयों में मुखर हो जाता 

कोई है जो उसी मोड़ पर रुका, कोई है जो संग चला
वो सलीके से हवाओं में खुशबू बिखर जाता

कीमियागर बना है, कई अनाम लम्हातों का
तन्हाइयों में रकाबत का रिश्ता भी निखर जाता 

रहगुज़र है तन्हा ,ग़म -ओ- नाशात का
इस अंधे शहर में जख्म फूलों का प्रखर जाता

लो आई है बहारे, जज़्ब हसरतों का
काविशों का मौसम में  ही,
 शऊर जिंदगी का निखर जाता
पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍



कीमियागर :रसायन विधा को जानने वाला
काविश: प्रयत्न, 
रहगुज़र :रास्ता, पथ
रकाबत: प्रति द्वंद्वी,प्रणय की प्रतियोगिता

Feb 16, 2018

जब डालती है ख्वाबों में खलल..




वाकिफ तो होेगें इस बात से..
इन पलकों पे कई सपने पलते हैं
उफ़क के दरीचों से झाँकती शुआएं
डालती है ख्वाबों में खलल..
जो अस्बाब है
गुजिश्ता लम्हों की, 
पर ये सरगोशियाँ कैसी?
असर है 
जो  एक लम्हें के लिए..
शबनमी याद फिर से मुस्कराता है
पन्ने है जिंदगी के..जिनसे
सूर्ख गुलाबों की खुशबू जाती नहीं,
जिक्र करते हैं ..
इन हवाओं से जब 
एक बूंद ख्यालों के
पलकों को नमी कर
फिर खलल डाल जाता है..
                                  पम्मी सिंह✍

उफ़क-क्षितिज,दरीचे-झरोखे,
शुआएं-किरणें,अस्बाब- कारण,वजह,
गुजिश्ता-बिती बात,



Jan 18, 2018

बवाल..






सुर्खियों में बवाल भी बिकते हैं
जो इघर रुख करें..
तो दिखाए बवाल इनकी..
मुंसिफ की जमीर है 
सवालों के घेरों में 
हाकिम भी वही
मुंसिफ भी वही
सैयाद भी वही
शिकायत भी कि बरबाद भी वही,
सो बीस साल से पहले
जम्हूरियत के दम पे बवाल कर बैठै,
समय के साथ 
बदल लेते हैं लिहाज़
खोखले शोर की शय हर सिम्त 
मसीहा के नाम दोस्तों
सोची समझी..
ये कोई और खेल है
फकत सवाल है हमारी..
क्यूँ इस्तहारों के नाम पे 
आप बवाल  बेचते हैं?
               पम्मी सिंह..✍


अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...