Jun 25, 2018

राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका..



राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका






 अंधकार है वहाँ - जहाँ आदित्य नहीं।
  मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं।।

वर्तमान में लोकतंत्र और बदलाव की राजनीति का  शोर है   लेकिन साहित्य और संस्कृति इसकी पृष्ठभूमि में कहाँ है।
राजनीति में बदलाव सर्वव्यापक है जिसका प्रभाव हमारे समाज पर पड़ता है । सवाल उठता है कि आखिर कहाँ तक साहित्यकार राजनीति को प्रभावित करते हैं ।
राजनीति का संबध जहाँ शासन पद्धति से तो वहाँ साहित्य का संबंध जीवन पद्धति से जुड़ा है । समयानुकूल   राजनीति अब समाज केंद्रित हो रहा है । ऐसे माहौल में साहित्यकारों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। “साहित्य” का अर्थ शब्द और अर्थ को यथावत सहभाव है ।  साहित्य और राजनीति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध है। जो सोपान की तरह  जो कभी नीचे से ऊपर की और तो कभी ऊपर से नीचे की ओर बढ़ती है । दोनों का उद्देश्य जन कल्याण की भावना से प्रेरित है ।
प्रेमचंद जी ने समाज और राजनीति के आपसी संबंधों के बारे में कहा
 “ जिस भाषा के साहित्य का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छे होने पर स्वभावतः राजनीति भी अच्छी होगी। यह तीनों साथ - साथ चलने वाली चीजें हैं । इन तीनों का उद्देश्य ही जो  एक है। यथार्थ में समाज, साहित्य और राजनीति का मिलन बिन्दू है।“
साहित्य समाज में व्याप्त राजनीतिक, सामाजिक गति-विधि को दर्शाता है । जो घटनाएँ, नीतियाँ और परिस्थितियाँ समाज के अस्तित्व में आती है । साहित्यकार उनके शब्दों के माध्यम से प्रकट करता है । साहित्य स्वयमेव शक्ति संपन्न है । यह ना सिर्फ राजनीतिक दल की वैज्ञानिक प्रगति , आर्थिक उन्नति सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतिनिधित्व करता है।
 साहित्य और राजनीति के कार्यक्षेत्र भिन्न है, फिर भी लक्ष्य एक जो समाज का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर प्रगतिशील समाज का निर्माण में सहायक है। 
 स्वच्छ समाज का निर्माण भी तभी संभव है जब तक साहित्यकारों की कलम किसी  राजनीति की महत्वकांक्षाओं के अधीन ना हो । स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए , क्योंकि साहित्य अनुभूत विचारों का संग्रह है। अतः वर्तमान समय में साहित्यकारों का यह पुनीत कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य का सृजन करें जो राष्ट्र की नीति- निर्धारण में सहायक हो । सत्साहित्य के ही प्रसाद पर राष्ट्र के विकास की नींव आधारित है।
            पम्मी सिंह..✍

22 comments:

  1. साहित्य वर्तमान का आइना होता है ... और भविष्य की नींव भी रखता है ...
    इसलिए साहित्य देश समाज की बात करे तो उचित है ।..
    अच्छा आलेख है ...

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    1. बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए आभार..

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  2. वाह्ह्ह...बहुत बढ़िया...सहमत है आपके विचारों से दी। एक वैचारिकी विषय पर मनन को प्रेरित करता सुंदर सारगर्भित लेख।

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    1. बहुत- बहुत धन्यवाद सुंदर शब्दों के लिए।

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  3. साहित्य और समाज को कभी भी अलग नहीं सोचा जा सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।बहुत ही अच्छा लेख मैम।

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    1. बहुमूल्य टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

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  4. सटीक और सत्य बात ..साहित्य समाज का प्रतिरूप है और समाज सहित्य का ...इतिहास विदित है जिस देश का साहित्य जितना स्रम्रद्ध होता था उतना वो देश या समाज सर्वोत्तम माना जाता था इसमें कोई अतिषियोक्ति नहीं है

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    1. गहन अभिव्यक्ति के लिए आभार।

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  5. बहुत सुन्दर लेख ।

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  6. सटीक और सत्य
    बेहतरीन

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  7. सार्थक लेख समय काल मे लिखा साहित्य ही कालातंर मे इतिहास मे आपकी छवि उजागर करता है, साहित्य राजनीति से अछूता भी नही रह सकता ।

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    1. बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु आभार।

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  8. प्रिय पम्मी जी -- सार्थक चिंतन से भरे इस आलेख में आपने जो बात कही वह बहुत ही विचारणीय है| भले ही साहित्य राजनीति और समाज को त्वरित रूप में बदलने में सक्षम नही पर इसका प्रभाव ना होता हो ऐसा कभी नही होता | और तत्कालीन देश समाज की प्रवृतियों को कवक औए केवल हम साहित्य के आईने में देख पाते हैं | लघु वार्ता में महत्वपूर्ण बात ल्लिखने के लिए आभार |

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    1. बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु आभार।

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  9. बिलकुल सही कहा आपने पम्मी जी , साहित्यकारों को किसी राजनैतिक दवाब के अंदर नहीं आना चाहिए | उनका योगदान अपनी कलम द्वारा समाज के उत्थान में हो न की किसी राजनैतिक दल का विज्ञापन करने में

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  10. सुंदर लेख है और सही कहा आपने कि साहित्य जगत पर राजनीति भारी न पड़े। परंतु राजनीति की गंदगी चंहुओर पांव पसार रही है। अनेक योग्य साहित्यकार उपेक्षित हैं और जुगाड़ तंत्र अयोग्यों का पुरस्कार थमा रहा है। किसी की रचना कोई चुरा रहा। कुंठा यहा भी है फिर भी असली मस्ती तो इसी साहित्य जगत में है।

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