Jul 31, 2021

खग वृंद



 Batch of 2020- 2021 online batch really deserve it. In a short sentence ," New ways of thinking and to cope with different situation "

पीछे मुड़कर देखतीं हूँ तो कल की ही बात लगती है.. स्कूटी से लाते वक्त पीछे मूँह कर बैठ जाना, कभी हिलडुल करना, हेलमेट न पहनने की जीद्द करना और मेरा सख्ती कर बोलना हमलोग यहीं बैठ जाते हैं, फिर ड्राइविंग सीट पर बैठतें ही अपने से पहले मुझे सीट बेल्ट लगाने के लिए बोलना... लगता है सब बहुत जल्दी बित गया, पर समय की तो अपनी ही चाल है .

इसी बात पर जाते - जाते शगुन के साथ,उसके सभी सहपाठियों के लिये..✍️


हर नई सोच का मज़मून बना लेना

फ़लक को छूकर जमीं से निभा लेना,


गूजरें चौदह साल खूबान -ए -जहाँ  में

फ़त्ह के अंदाज में भी आलिमों से दुआ लेना


बनाकर हौसले तुम उँची उड़ानों की

दामन के काँटों को थोड़ा सजा लेना,


 ठोकरें भी आती हैं कदमताल से ही

 जमाने के निगाह से हौसले बचा लेना,


 सुब्ह बिखरी हुई 'शगु','शुभ' के राहों में

 'तृप्ति'अपनी गौहरों को सीप में छुपा लेना।

 पम्मी सिंह 'तृप्ति'

बहुत - बहुत शुक्रिया।

सादर...✍️


(ख़ूबान ए जहाँ-best of the world,मज़मून- subjectफ़लक-sky, आलिमों- scholarly 'here use for teacher' गौहरों-pearls,)

Jul 5, 2021

यहाँ जिंदगी इतनी ख़फा नहीं..

 

कई दिनों बाद ...थोड़ी सी सुकून और कलम...गानें के साथ 


हालत ये मेरे मन की, जाने ना जाने कोई
आई हैं आते आते होठों पे दिल की बातें..

क्योंकि यहाँ जिंदगी इतनी ख़फा नहीं, आकाश सी बदलती रंग है पेश है चंद मुक्तक..जिसे १२२२, १२२२,१२२२,१२२२ बहर पर ..समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का स्वागत है✍️

१.

जमानें हार कर हमनें अब जाना,ये इशारे है

यहीं पर चाँद है मेरा, यहीं पर हीं सितारे हैं

खुले दर ही सही पर फासलें यूँ ही नहीं रहतें

महज़ दि'लों की इबादत से कई दीवारें हारे हैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
२.
कि तेरा साथ मिल जाए सफर सामान हो जाए

दिल से दिल की तआरुफ़ बस आसान हो जाए

अजब सी दिल्लगी जूनून तारी रहा मुझ पर

दिलों के दरमियाँ ये फासलें अनजान हो जाए।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
३.
मुझे तुम भूल जाओगे कि वो मंजर नहीं हूँ मैं
ज़रा सी बात पर रूठे कि वो पिंजर नहीं हूँ मैं
बचीं अब भी वहीं दीवानगी जो रौनकें देती-
सहर को शाम जो समझें कि वो मंतर नहीं हूँ मैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...