Dec 28, 2016

आनेवाली मुस्कराहटों .....

लो गई..
उतार चढ़ाव से भरी
ये साल भी गई...
गुजरता पल,कुछ बची हुई उम्मीदे
आनेवाली मुस्कराहटों का सबब होगा,
इस पिंदार के साथ हम बढ़ चले।

जरा ठहरो..देखो
इन दरीचों से आती शुआएं...
जिनमें असिर ..
इन गुजरते लम्हों की कसक, कुछ ठहराव और अलविदा कहने का...,
पयाम...नव उम्मीद के झलक
कुसुम के महक का,

जी शाकिर हूँ ..
कुछ  चापों की आहटों से
न न न न इन रूनझून खनक से...,

हाँ..
कुछ गलतियों को कील पर टांग आई..,

बस जरा सा..
हँसते हुए ख्वाबों ने कान के पास आकर हौले से बोला..
क्या जाने कल क्या हो?
कोमल मन के ख्याल अच्छी  ही होनी चाहिए..।
                                                                  ©  पम्मी सिंह  
                                                     
        (पिंदार-self thought,शाकिर- oblige )                                           





Dec 12, 2016

बड़ा अजीब सफर...

                                                                                                                                                             




 बड़ा अजीब सफर है आजकल मेरे तख़य्युल का

कुछ घटित घटनाएँ ..शायद सुनियोजित तो नहीं

पर वहाँ संयोग जरूर विराजमान थी।

टकराती हूँ  चंद लोगो से जो अनभिज्ञ है कि

लफ्ज़ो की भी आबरु होती है..

बोलते पहले हैं सोचते बाद में।

जिसे दीवारो को खुरच कर सफाई करने की बातें कहते,

शब्दों ,बोल और व्यवहार में मुज़्महिल(व्याकुल) इस कदर
मानो सैलाब आ गया ..


शाब्दिक आलाप कुछ और  पर मुनासिब अर्थ बता गए.

विरोधाभास यह कि सुने और समझे वही तक जहाँ तक उनकी सोच की सीढी जाती है..

 वाकिफ़ हूँ  चंद समसमायिक विषयों, व्यक्तिव के पहलूओं और जहाँ की रस्मों से

वरना छिटकी चाँदनी को ही वज़ा करती..।


Nov 29, 2016

जिनमें असीर है कई



यूँ तो कुछ नहीं बताने को..चंद खामोशियाँ बचा रखे हैं

जिनमें असीर है कई बातें जो नक़्श से उभरते हैं


खामोशियों की क्या ? कोई कहानी नहीं...


ये सुब्ह से शाम तलक आज़माए जाते हैं

क्यूँकि हर तकरीरें से तस्वीरें बदलती नहीं 

न ही हर खामोशियों की तकसीम लफ़्जों में होती

रफ़ाकते हैंं इनसे पर चुनूंगी हर तख़य्युल को

जब  खुशी से वस्ल होगी...
                                  ©  पम्मी सिंह
.

(आसीर-कैद ,तकरीर-भाषण,रफाकते-साथ,तख़य्युल-विचारो,तकसीम-बँटवारा )

Oct 29, 2016

इस दीवाली कुछ अच्छा सोचते हैं..

या देवी सर्व भूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।


इस दीवाली कुछ अच्छा सोचते हैं
ज़ीस्त के अदवार बेसूद न हो

' तमसो मा ज्योतिर्गमय 'संदेश को ज्योतिर्मय कर
हर पलक्षिण को दीपों से आलोकित करते हैं,

किताबों की बातें किताबों में ही न हो
सुख, संतुष्टि, सद्भावना रूपी जौं को प्रज्जवलित करते हैं,

हसद, हमेव, हब्स को दूर कर
शबोरोज़ राहों को मंजिल के करीब लाते हैं,

चलो... इन ख्यालो की बस्ती से निकल कर
सू-ए-गुलज़ार रूख मोड़ते हैं,

कुछ इस तरह ...
हर आसताँ को दीपमय कर रौशन करते हैं.
                                   ©पम्मी सिंह


(हसद-ईष्या,हब्स-रूकावट,हमेव-अंहकार,आसताँ-चौखट,सू-ए-गुलज़ार-बाग की तरफ)

Oct 5, 2016

अफियत की वक्त मुक़रर्र कर दो..


अाफियत की वक्त मुक़रर्र कर दो..

.
चंद आफियत की

वक्त मुक़रर्र कर दो..

पुरखुलूस की ताब से ही

गुज़रती है जिन्दगी..

हर लबो पर तबस्सुम को आबोताब कर दो..

साजिशें थी दहर के चांद सितारो की

वर्ना खुशियाँ झाँकती हर दरीचों से

इस तरह ही हर पल को ढूढती

एक पल को गुज़ार दो



चंद आफियत की...
                ©पम्मी सिंह 



Aug 29, 2016

आसमान को और झुकना..

आसमान को और झुकना..


आसमान को और झुकना पड़ेगा

न जानू फिज़ाओ की आगोश की बातें..

ख्वाहिशों की मुरादो को पूरा करना पड़ेगा

छोड़ो आज़ खोने की बातें

पाने के हुनर की ज़िक्र करना पड़ेगा

जहर न बन जाउ पीते-पीते

अमृत की भी आस करना पड़ेगा

सहरा में सराबो से वास्ता सही..

अब्र की आस करना पड़ेगा

सरसब्ज़ की तलाश में

सदमात को भी वाज़िब करना पड़ेगा..
                              ©पम्मी सिंह 


(सहरा-रेगिस्तान ,सराबो-जल भ्रम,सदमात-आघात)


Aug 1, 2016

आँखों में कुछ नमी...

आँखों में कुछ नमी सी...

आज छत से ..

मैने सूरज को उगते देखा

कई रंगो में ढल कर

इक नई रंग में ढलते देखा

हमारे हिस्से की धूप हमीं तक थी,

मन में कुछ सुकून सी थी..

हमारी कली जो

आज फूल बनकर खिलखिलाएँ हैं,

हमारी शादव्ल,शफ़़फा़फ जौ इन्हीं से हैं

समेटती हूँ ..इन लम्होंं के अहसासों को,

जो हमारे हिस्से की
फूल बन कर खिलखिलाएँ हैं,


दरीचो के पीछे से झाँकती दो आँखें

रिजक-ए-अहसास ही हैंं,

जो हर गम में भी मुस्कराएँ हैं..

देखो न..

इन मुस्कराती आँखों के कोरों  में

 फिर कुछ नमी सी है..,

खेल है धूप छाँव की

पर कुछ सुकून सी है..।
                 ©पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

(शादव्ल-हराभरा,शफ़फाफ़-उजला,धवल,रिजक-धन दौलत)




Some dewy tears in eyes...



Pronto I have seen rising Sun from our house top

the allurement of dawn and
 It's changed in unique colors. 
part of Sun rays which belongs to me
reached for me
today all buds changes in flowers
all greenery and pearly are accessible from this
try to collect all feelings and emotions.
ours share of the Sun beaming 
a couple of eyes peeping from  the small window
these feelings became to our wealth
which was smiling even in dismal...
please, see... still, some dewy tears are smiling in eyes
game of light and shade 
but still, there is some amenity... 
                               ©pammi singh
( a poem about when we see our growing child... )






Jul 14, 2016

एक मुलाकात 'मैं' से..

कभी-कभी दैनिक दिनचर्या से दूर हो कर सोची कुछ अपनी मन की बात..
(उम्र के किसी भी दौर में ये नटखटी अंदाज अनयास ही लबो को मुस्कराहटो से लबरेज कर जाती हैं)
जाड़ो की सुबह और गर्म चाय का सम्बन्ध बड़ी गहरी ..
मम्मी...(दूसरे कमरे से आवाज़)
आज क्या बनेगा
पति और बच्चो के लिए मौसम किसी पिकनीक से कम नहीं .. सब एक साथ बोले कुछ अलग ...
मम्म..मम्...माँ..( ये शब्दो का परिवर्तन बेटी के आवाज़ में अपनी बातो पर जोर देने का नायाब तरीका)
मैने भी ठान ली आज रज़ाई से नहीं निकलुगीं और बोली... चलो आज तुमलोगो के मन की बात करती हूँ
पिज्जा और बर्गर मंगा लो..
बस क्या था
मानो मन की मुराद पूरी हो गई.
और मैं...
मेरी मुलाकात  मैं से हो गई जो बहुत हैरान परेशान सी कल और आने वाले कल की बातें सोच कर...
 ‘मैं मुस्करा कर बोली छोड़ो भी आज और अभी से जीना सुरु करते हैं.
दोनो हथेलियों से जल लेकर कलश को भरने का प्रयास...
पर मन का क्या करु कभी इस डाल कभी उस डाल पर हर वक्त परिदों की भांति उड़ने को बेताब..
 ‘मै की वही चिर परिचित मुस्कान और बोली इसे कहीं मनमुताबिक कार्यो से बाँध दो..और खुद के
लिए भी जीना सीख लो. देखना क्या मजाल है जो ये दूर जाए.
पर इन उदासियों का क्या अनायास हि आती है.
इसे तो नहीं बुलाती.
मैं हँसती हुइ बोली कुछ शौक पाल लो , किसी को हमराज बना लो और हमराज बन जाओ.
कोतूहलवस प्रश्न कर बैठी
ऐसा होता है क्या आखिर भाग्य और भगवान भी यहाँ विराजमान है..
मैं के अनुसार तो जिंदगी जैसे ( मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को
धुएँ में उड़ाता चला...)
आजतक यही सोचती रही अगर मैं किसी का बुरा ना चाहूँ तो दूसरे भी ऐसा नहीं करेगें.
पर यहाँ भी प्रश्न चिन्ह हैं. मैं - यहाँ प्रवृति और पराभाव की वृति विधमान हैं.
जितने लोग उतने भाव, विषाद, सोच और अपेक्षाएँ ...
 हर किसी के मापदंड पर खरा उतरना कठिन है.
मैं का उत्तर  सांसरिक रीति रीवाज़ के लिए अनहलक को त्याग कर सांसारिक बन जाओ.
पूर्ण प्रकाश की आकांक्षा है साथ हि  यह मेरी अंतर्वेदना भी ...
विस्मित होकर मैं बोली...
प्रकाश से आँख हटा कर अंधकार की ओर देखो घनघोर अंधेरे में भी सुंदर
दृश्य दिखाई देगी...
ये जिंदगी मुठ्ठी हैं.
जितना जोर लगाकर खुलेगी .. .कुछ न कुछ जरूर ...
शायद ...  कोतुक, वस्तु  हाँ , वो जिज्ञासा और उसके संदर्भ में क्रीड़ा शायद इसी में जीवन की व्याख्या
निहित है. यही यथार्थ है . 
अब असीम संतुष्टि और लबो पर मुस्कराहट जारी थी, चिरागो से लौ जगमगाने  लगी.
यदा-कदा आत्म मंथन भी उचित है.
Hey! Mom ...आप अभी तक...
आज कुछ स्पेशल हो जाए और मैं ड्राइव करुंगा ( ये बेटे की आवाज़ थी )
मैंने भी उसी लहजे में बोला why not? Assure  :-)  
तभी मेरी नज़र एक जोड़ी  मुस्कराती आँखों पर गई  जिसका कारण मेरी लफ्ज़ों और लहज़ों की
उतार चढाव थी..( पति हो तो ऐसे ज़रा सी नासाजी क्या  दिखाई बिछावन पर ही... :-)))

आज की वर्तालाप क्रमश:

Jun 27, 2016

जो मिली वज़ा थी...

जो मिली वज़ा थी...

बस एक चुप सी लगी है...

जो मिली वज़ा थी

जो मिली बहुत मिली है,

बस एक बेनाम सा दर्द गुज़र कर

हर लम्हो को अपने नाम कर जाता,

सुकूत हि रिज़क बनी है

पर इक जिद्द सी मची है

ज़फा न होगी अब खिज़ा, हिज्र की

बस एक चुप सी...
                
                ©पम्मी

Jun 18, 2016

वो बोल...

आहटे नहीं है
उन दमदार कदमों के चाल की,
गुज़रती है जेहन में ..
वो बोल
मैं हूँ न..
तुमलोग घबराते क्यों हो ?’
वो सर की सीकन और जद्दोजहद,
हम खुश रहे..
ये निस्वार्थ भाव कैसे ?
आप पिता थे..
अहसास है अब भी
आपके न होकर भी होने का
गुंजती है..
तुमलोग को क्या चाहिए ?
पश्चताप इस बात
न पुछ सकी
आपको क्या चाहिए..
इल्म भी हुई जाने के बाद,
एनको के पीछे
वो आँखें नहीं
पर दस्तरस है आपकी 
हमारी हर मुफ़रर्त में..
                 ©पम्मी 

                  
                

                

May 17, 2016

प्रयास जारी रहती..

इत्ती  सी  ज़िंदगी ,, इत्ता  सारा  काम. . 
अब  बोलो  कैसे  करु 
हाँ , जी  बस  करना  जरूर  हैं। 
ओ>> जिसे  छुट्टियाँ  कहते हैं  आई थी  चली  भी  गयी...
भाई, हद  हो  गई   
हर  दिन  की  इक  कहानी.. 
सब  की  छुट्टियों  में  अपना  हिस्सा   तलाश  रही  थी। 
(वो  सुबह  कभी  तो आएगी . . )
हर  रिश्तों  को  आती -जाती  सांसो  मे  उतार  कर  सुखद  अहसास  देने 
की  प्रयास  ज़ारी  रहती हैं। 
फिर  भी  कभी  ये  छूटा  तो  कभी  ओ  छूटा . . 
धत ! तेरी  की . परेशानी  की  क़्या  बात ? 
हर  लकीरो  में  मोड़ आ   ही  जाती  हैं। 
सच  हैं .
ठहरे  हुए  पानी  में  घोर  सन्नाटा .  . 

तन्कन्त  तो  इस  बात  की 
मैने  सारी  उम्र  बिना  छुट्टियों   की  बहुत  काम  की 
तभी   एक  आवाज़ 
तूने   किया  क़्या  ?
चार  रोटियाँ   हि  तो  बनाई 
स्थिति  जल  बिन  मछली  की  तरह ...

शायद  इस  लिए  बैठे -बैठे  एक   कंकर   डाल  दी . . परत  दर  परत  लहरों  की  तरह 
मन  मे  विचार  भी  आ  कर  जाती  रही। 
जा  रही  हुँ.. शाम  होने  को आई .. 
खुद  के  हिस्से   की  उम्र को   जी  रही  हूँ 
कल  तो  छुट्टी  होगी  हि.. 
(इत्ती  सी  हसी ,इत्ती  सी  ख़ुशी, इत्ता  सा  आसमान 
हुह .. तो  फिर  इत्ती  सी  परेशानियाँ .  . )


आज बिना लाग  लपेट के सुलभ भाव की प्रस्तुति।  

Apr 30, 2016

रीवाज पाल रखी..

लोगो ने ये कौन सी

ऱीवाज पाल रखी

जहाँ खुद की

पाकीजगी साबित

करने की चाह में

दुसरो को गिराना पडा,

मसाइबो की क्या कमी

खुद की रयाजत और

उसके समर की है आस..

रफाकते भी चंद दिनो की

पर मुजमहिल इस कदर कि

मैं ही मैं हूँ।

न जाने

वो इख्लास की

छवि गई कहाँ

जहाँ अजीजो की

भी थी हदें

खुदी की जरकाऱ

साबित करने की चाह में

लोगो ने ये कौन सी

रीवाज पाल रखी है

इक हकीकत ऐसी

जिससे नजरे भी

बचती और बचाती है...।
                     ©..पम्मी



अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...