आहटे नहीं है
उन दमदार कदमों के
चाल की,
गुज़रती है जेहन में
..
वो बोल
‘मैं हूँ न..
तुमलोग घबराते क्यों
हो ?’
वो सर की सीकन और
जद्दोजहद,
हम खुश रहे..
ये निस्वार्थ भाव
कैसे ?
आप पिता थे..
अहसास है अब भी
आपके न होकर भी होने
का
गुंजती है..
तुमलोग को क्या
चाहिए ?
पश्चताप इस बात
न पुछ सकी
आपको क्या चाहिए..
इल्म भी हुई जाने के
बाद,
एनको के पीछे
वो आँखें नहीं
पर दस्तरस है आपकी
हमारी हर मुफ़रर्त
में..
©पम्मी
©पम्मी
वाह पम्मीजी, आंख में आँसू आ गये, ऐसी आई पिता की याद।
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभार...
Deleteमार्मिक
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभार..
Deletehttp://hradaypushp.blogspot.in/2009/11/gagan.html
ReplyDeleteपिता की यादें किस तरह संजीदा होकर एक काव्य रचना के रूप में प्रस्तुत हुईं और हम सभी को इन यादों से रूबरू होने का अवसर मिला, एक पिता को समर्पित बहुत ही अच्छी काव्य रचना। अच्छी और संजीदा रचना देनेे के लिए आपका आभार।
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभार..
ReplyDeleteमहज़ रचना नही,दस्तावेज़ दिल का!'मुफरर्त' शब्द फिर हमारी दस्तरस से बाहर!सलाम आपके अल्फ़ाज़ों को!!!
ReplyDeleteबस अक्सर यही होता है ... जब पाक पिता से पूछने का पता चलता है समय निकल जाता है ... गहरे एहसास लिए रचना ...
ReplyDeleteसत्य कहा पिता एक ऐसा शब्द है जिसका नाम लेते ही मन में लाखों उम्मीदें पंक्षियों सी उड़ान भरती हैं ,बिना डरे दुनियां की कठिनाईयों से आभार "एकलव्य''
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन
ReplyDeleteएहसास है अब भी
ReplyDeleteआपके न होकर भी होने का......
भावपूर्ण प्रस्तुति