Sep 28, 2020

 






दिनांक ः 10/8/20

विषयः चित्राधारित

विधाः छंद मुक्त

शीर्षक ः निर्धनता

अब तो समझों.. है न..

एक अभिशाप सी  ये निर्धनता

पथिक मौन हो गुजर रहा

कहीं छुप रही ये मानवता?

आँखों की सूनापन देखों

कितनी बातें बोल रही,

रखकर सूखे होठों पर सवाली

सबकी थाली झांक रही

अब तो समझों.. हैं न..

एक अभिशाप सी ये निर्धनता

देख कर तेरी दुर्दशा

नीर बहायें बड़े बड़े

दो जून की रोटी के लिए

स्वप्न दिखाये बड़ें बड़ें।

अब तो समझों..हैं न..

एक अभिशाप सी ये निर्धनता

नहीं है अन्न, वासन 

ताडंव मचाते भूख चारों ओर,

मरघटी सी नीरवता में भी

जीने की ये कैसी विवशता

अब तो समझों.. है..न..

एक अभिशाप सी,  ये निर्धनता।

हृदयभाव भी शून्य हुआ

देखी तेरी जब तस्वीर

लाल बाल के आँखों में तैर रहा

रोटी बोटी की मरीचिका,

अब तो समझों.. है..न..

एक अभिशाप सी, ये निर्धनता।

व्यथा भरी विरह वेदना से

आश की चादर बुन रही,

अश्रुपूरित दृगों से

जीवन की जिजीविषा गुन रही

अब तो समझों.. है न..

एक अभिशाप सी ये निर्धनता।

पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍






Sep 22, 2020

मौन सी अभिव्यंजना...

 चित्राधारित सृजन




 मौन सी अभिव्यजंना

कागज पर बिखर रही


मुदित मन की स्पंदना

आतुर हो निखर रही


खिल रहें रंग केसरी 

विहग गान नभ साजी


पुलक रहे चित चितवन 

व्यंजना पर अखर रही


मौन सी अभिव्यंजना

कागज पर बिखर रही


नव नूतन भाव भ्रमित 

सुर संगीत भूल रही 


नव भोर की आश से

स्वर्णी तारे गुथ रही


खिल रही निलांजना

धुंध ऊर्मिमुखर रही


मौन सी अभिव्यंजना

कागज पर बिखर रही


पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍️





अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...