(उम्र के किसी भी
दौर में ये नटखटी अंदाज अनयास ही लबो को मुस्कराहटो से लबरेज कर जाती हैं)
जाड़ो की सुबह और
गर्म चाय का सम्बन्ध बड़ी गहरी ..
मम्मी...(दूसरे कमरे
से आवाज़)
आज क्या बनेगा
पति और बच्चो के लिए
मौसम किसी पिकनीक से कम नहीं .. सब एक साथ बोले कुछ अलग ...
मम्म..मम्...माँ..(
ये शब्दो का परिवर्तन बेटी के आवाज़ में अपनी बातो पर जोर देने का नायाब तरीका)
मैने भी ठान ली आज
रज़ाई से नहीं निकलुगीं और बोली... चलो आज तुमलोगो के मन की बात करती हूँ
‘ पिज्जा और बर्गर मंगा लो..’
बस क्या था
मानो मन की मुराद
पूरी हो गई.
और मैं...
मेरी मुलाकात ‘मैं’ से हो गई जो बहुत हैरान परेशान सी कल और आने
वाले कल की बातें सोच कर...
‘मैं ‘ मुस्करा कर बोली छोड़ो भी आज और अभी से जीना
सुरु करते हैं.
दोनो हथेलियों से जल
लेकर कलश को भरने का प्रयास...
पर मन का क्या करु
कभी इस डाल कभी उस डाल पर हर वक्त परिदों की भांति उड़ने को बेताब..
‘मै ‘ की वही चिर परिचित मुस्कान और बोली इसे कहीं
मनमुताबिक कार्यो से बाँध दो..और खुद के
लिए भी जीना सीख लो.
देखना क्या मजाल है जो ये दूर जाए.
पर इन उदासियों का
क्या अनायास हि आती है.
इसे तो नहीं बुलाती.
‘मैं ‘ हँसती हुइ बोली कुछ शौक पाल लो , किसी को हमराज
बना लो और हमराज बन जाओ.
कोतूहलवस प्रश्न कर बैठी
ऐसा होता है क्या
आखिर भाग्य और भगवान भी यहाँ विराजमान है..
‘मैं’ के अनुसार तो जिंदगी
जैसे ( मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को
धुएँ में उड़ाता
चला...)
आजतक यही सोचती रही
अगर मैं किसी का बुरा ना चाहूँ तो दूसरे भी ऐसा नहीं करेगें.
पर यहाँ भी प्रश्न
चिन्ह हैं. ‘मैं ‘- ‘यहाँ
प्रवृति और पराभाव की वृति विधमान हैं.’
जितने लोग उतने भाव,
विषाद, सोच और अपेक्षाएँ ...
हर किसी के मापदंड पर खरा उतरना कठिन है.
‘मैं ‘ का उत्तर
सांसरिक रीति रीवाज़ के लिए अनहलक को त्याग कर सांसारिक बन जाओ.
पूर्ण प्रकाश की
आकांक्षा है साथ हि यह मेरी अंतर्वेदना भी
...
विस्मित होकर ‘मैं ‘ बोली...
प्रकाश से आँख हटा
कर अंधकार की ओर देखो घनघोर अंधेरे में भी सुंदर
दृश्य दिखाई देगी...
ये जिंदगी मुठ्ठी
हैं.
जितना जोर लगाकर
खुलेगी .. .कुछ न कुछ जरूर ...
शायद ... कोतुक, वस्तु ‘हाँ ‘, वो जिज्ञासा और उसके संदर्भ में क्रीड़ा शायद
इसी में जीवन की व्याख्या
निहित है. यही
यथार्थ है .
अब असीम संतुष्टि और
लबो पर मुस्कराहट जारी थी, चिरागो से लौ जगमगाने
लगी.
यदा-कदा आत्म मंथन
भी उचित है.
Hey! Mom ...आप अभी तक...
आज कुछ स्पेशल हो
जाए और मैं ड्राइव करुंगा ( ये बेटे की आवाज़ थी )
मैंने भी उसी लहजे में बोला why not? Assure :-)
तभी मेरी नज़र एक
जोड़ी मुस्कराती आँखों पर गई जिसका कारण मेरी लफ्ज़ों और लहज़ों की
उतार चढाव थी..( पति
हो तो ऐसे ज़रा सी नासाजी क्या दिखाई
बिछावन पर ही... :-)))
आज की वर्तालाप
क्रमश:
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ReplyDeletehttp://max-aschmann-park.blogspot.com/2016/06/blog-post_23.html
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Deleteबहुत बहुत शुक्रिया
आत्म मंथन कई परतें खोल जाता है अपनी ही ... फिर खुद से अलग खुद को देखना भी अच्छा लगता है ...
ReplyDeleteरचना पर कमेन्ट पढकर खुशी हुई...
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया