अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
Sep 3, 2018
Aug 31, 2018
दोहे..
31अगस्त2018
दोहे
विषयःमुनि
1.
मुनि औरों का हित करें,चाहे नित आत्म ज्ञान ।
सच्चे मन से मनन करें, मिल जाएँ भगवान।।
2.
धुनी रमाकर हित करें,अंधकार को दूर।
निज हित से उपर रहे, उस पर रब का नूर।।
3.
तिलक तावीज से भान, घूमते चहूँ ओर।
सद्गुण ही पावन निधान, क्यूँ करते सब शोर।।
4.
सद् मुनि वंदन चिर निरुपम, करते जग का ज्ञान।
सृष्टि वंदन चिर निरुपम, इसका भी करों ध्यान।।
5.
दिव्यपुंज करते समस्त भाव को,जोड़ते हर
विधान।
निश्च्छल करते हृदय को,हैं सारे एक समान।।
6.
श्रेय और प्रेय के भाव, अपने मन का पीर।
तृष्णा है सबके भाव, रख लो मन का धीर
© पम्मी सिंह 'तृप्ति'.✍
दोहे
विषयःमुनि
1.
मुनि औरों का हित करें,चाहे नित आत्म ज्ञान ।
सच्चे मन से मनन करें, मिल जाएँ भगवान।।
2.
धुनी रमाकर हित करें,अंधकार को दूर।
निज हित से उपर रहे, उस पर रब का नूर।।
3.
तिलक तावीज से भान, घूमते चहूँ ओर।
सद्गुण ही पावन निधान, क्यूँ करते सब शोर।।
4.
सद् मुनि वंदन चिर निरुपम, करते जग का ज्ञान।
सृष्टि वंदन चिर निरुपम, इसका भी करों ध्यान।।
5.
दिव्यपुंज करते समस्त भाव को,जोड़ते हर
विधान।
निश्च्छल करते हृदय को,हैं सारे एक समान।।
6.
श्रेय और प्रेय के भाव, अपने मन का पीर।
तृष्णा है सबके भाव, रख लो मन का धीर
© पम्मी सिंह 'तृप्ति'.✍
Aug 20, 2018
सृष्टि चिर निरुपम...
सृष्टि चिर निरुपम
अंतर्मन सा अनमोल भ्रमण
आत्मा का न संस्करण
किंजल्क स्वर्ण सरजीत
समस्त भाव
दिव्यपुंज दिव्यपान
प्रज्ञा का भाव
जागृत सुप्तवस्था
निर्गुण निर्मूल
अविवेका,
निः सृत वाणी
अस्तु आरम्भ
सदा निर्विकारी
कर्म अराधना
विकर्म विवेकशून्य
निष्काम कर्मयोग अनुशीलन
संघर्षरत वृत्ति
यदा कदा प्राप्तव्य
अज्ञान निवृत्ति
यजन प्रवृत्ति
संसृति संकल्प
श्रेय और प्रेय विकल्प
व्यष्टिक चेतना अल्प
जटिल सार्विक क्रियाकलाप
स्वार्थ सर्वव्यापी
संकल्पता,साकारात्मक
यथार्थ जीवन का
प्रतिपादित कर्म
©पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍
Jul 25, 2018
लाजिमी है सियासत ..
भीड़ तंत्र पर बात चली हैं,एक छत के आस में
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,
आह,वाह..अना,.अलम,आस्ताँ के खातिर
आजकल हुजूम के कारोबार की हवा खूब चली हैं,
दर -ओ-दम निकाल कर ,बे-हिसाब बातों पर
शानदार इबारतें में ,शान्ति की राह निकली हैं,
शहरों के तमाम लफ़्जी बयां के मंजर देख
आँखों पर कतरन बाँध, अब नई राह निकली है,
बिसात किसी और की ,शह ,मात के जद़ में
चंद लोगों को मोहरा बनाने की बात चली हैं,
कलम भी तेरी ,दवात भी तेरी,तजाहुल भी तेरी
अब हर बात पे सफ़हे भी लाल हो चली हैं,
रंग बदला,मिजाज बदला और वो हुनर निखरा
जहाँ पत्थर-दिल इंसानों की फितरत खूब बदली हैं,
एक मुक्कमल सहर के खातिर,हवाओं के रूख भाप
आदम की किस्मत को फ़र्क करने की तस्बीह खूब चली हैं,
लाजिमी हैं सियासत हैं ..और
सियासत में, सवाल,बवाल,मलाल की ही चली हैं,
पर जब बात यूँ निकली तो सवाल हैं ..
इबादत न सही पर क्या?
कभी दिलों के मौसम बदलने वाली बात चली हैं. ..
पम्मी सिंह'तृप्ति'..✍
(तस्बीह-जप करने की माला, अना-स्वाभिमान,अलम-दुख,शोक,तजाहुल-जान बूझकर अनजान बनना, सफ़हे -पन्ना,आस्ताँ-चौखट,
Jun 25, 2018
राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका..
राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका
अंधकार है वहाँ - जहाँ आदित्य नहीं।
मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं।।
वर्तमान में लोकतंत्र और बदलाव की राजनीति का शोर है लेकिन साहित्य और संस्कृति इसकी पृष्ठभूमि में कहाँ है।
राजनीति में बदलाव सर्वव्यापक है जिसका प्रभाव हमारे समाज पर पड़ता है । सवाल उठता है कि आखिर कहाँ तक साहित्यकार राजनीति को प्रभावित करते हैं ।
राजनीति का संबध जहाँ शासन पद्धति से तो वहाँ साहित्य का संबंध जीवन पद्धति से जुड़ा है । समयानुकूल राजनीति अब समाज केंद्रित हो रहा है । ऐसे माहौल में साहित्यकारों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। “साहित्य” का अर्थ शब्द और अर्थ को यथावत सहभाव है । साहित्य और राजनीति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध है। जो सोपान की तरह जो कभी नीचे से ऊपर की और तो कभी ऊपर से नीचे की ओर बढ़ती है । दोनों का उद्देश्य जन कल्याण की भावना से प्रेरित है ।
प्रेमचंद जी ने समाज और राजनीति के आपसी संबंधों के बारे में कहा
“ जिस भाषा के साहित्य का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छे होने पर स्वभावतः राजनीति भी अच्छी होगी। यह तीनों साथ - साथ चलने वाली चीजें हैं । इन तीनों का उद्देश्य ही जो एक है। यथार्थ में समाज, साहित्य और राजनीति का मिलन बिन्दू है।“
साहित्य समाज में व्याप्त राजनीतिक, सामाजिक गति-विधि को दर्शाता है । जो घटनाएँ, नीतियाँ और परिस्थितियाँ समाज के अस्तित्व में आती है । साहित्यकार उनके शब्दों के माध्यम से प्रकट करता है । साहित्य स्वयमेव शक्ति संपन्न है । यह ना सिर्फ राजनीतिक दल की वैज्ञानिक प्रगति , आर्थिक उन्नति सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतिनिधित्व करता है।
साहित्य और राजनीति के कार्यक्षेत्र भिन्न है, फिर भी लक्ष्य एक जो समाज का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर प्रगतिशील समाज का निर्माण में सहायक है।
स्वच्छ समाज का निर्माण भी तभी संभव है जब तक साहित्यकारों की कलम किसी राजनीति की महत्वकांक्षाओं के अधीन ना हो । स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए , क्योंकि साहित्य अनुभूत विचारों का संग्रह है। अतः वर्तमान समय में साहित्यकारों का यह पुनीत कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य का सृजन करें जो राष्ट्र की नीति- निर्धारण में सहायक हो । सत्साहित्य के ही प्रसाद पर राष्ट्र के विकास की नींव आधारित है।
पम्मी सिंह..✍
Jun 16, 2018
आपकी सरपरस्ती में संवर कर ..
पापा ..
यूँ तो जहां में फ़रिश्तों की फ़ेहरिस्त है बड़ी ,
आपकी सरपरस्ती में संवर कर ही
ख्वाहिशों को जमीं देती रही
मगर अब..
जरा बेताब है मन, घिरती हूँ धूंधले साये से ,
हमारी तिफ़्ल - वश की ज़िद्द और तल्ख लहजों के गहराइयों को अब
हथेलियों के उष्ण में हौसलों को तलाशती रही
आपकी बुजूर्गियत ने ही तो हमें बहलायें रखा
उम्मीद करती हूँ हर पल किसी फ़जल का
पर मगा़फिरत की बात पर आपको
हाथ छोड़ कर जाते देखती रही
खबर तो होगी फितरतें बदलता है आस्मां भी
भंवर में निखरना सिखाया हैं आपने ही
हमारे हक़ में था बस इरादा बदलना
राह के पेचो खम से ग़ुज़रती पर संभलती रही..
©पम्मी सिंह✍
(तिफ़्ल - वश :बच्चों की तरह,फ़जल:कृपा, मगाफिरत:मोक्ष)
May 12, 2018
अर्श पे दर्ज एहकाम ..
ख्वाबों की जमीन तलाशती रही
अर्श पे दर्ज एहकाम की तलाश में कितनी रातें तमाम हुई
इंतजार, इजहार, गुलाब, ख्वाब, वफा, नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई
कुछ तो रहा गया हममें जो जख्म की बातों पर मुस्कराते है
हर सुब्ह संवरता है मानों खिजां में भी फूलों की ऐहतमाम हुई
जमाने की जद में हम कुछ और बढ गए
अब रक़ीबो को एहतिराम करते कितनी
सुब्हो- शाम हुई
लब सिल लिए अमन की खातिर
ज़रा सी सदाकत पर क्या चली मानो शहर में कोहराम हुई।
© पम्मी सिंह'तृप्ति'.✍
(एहकाम-आदेश, ऐहतमाम- व्यवस्था, अर्श-आसमान, एहतिराम-कृपा:आदर, ख़िजा-पतझड़, रक़ीब-प्रतिद्वंदी)
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