बस यहीं हूँ..
कहीं और नहीं जरा भंवर में पड़ी हूँ...
दरपेश है आसपास की गुज़रती मसाइलो से
गाहे गाहे घटती मंजरो को देख,
खुद के लफ्ज़ों से हमारी ही बगावत चलती है
गो तख़य्युल के साथ-साथ लफ़्जों की पासबानी होती है,
कुछ खास तो करती नहीं.. .पर
खुद बयानी सादा-हर्फी पर हमारी ही दहशत चलती है,
क्या करु...
खिलाफ़त जब आंधियाँ करती है तो जुरअत और बढती है।
©पम्मी सिंह
(दरपेश -सामने, मसाइलो -मुसिबत, तख़य्युल -विचारो, ,पासबानी-पहरेदारी,जुरअत-हौसला )