बस यहीं हूँ..
कहीं और नहीं जरा भंवर में पड़ी हूँ...
दरपेश है आसपास की गुज़रती मसाइलो से
गाहे गाहे घटती मंजरो को देख,
खुद के लफ्ज़ों से हमारी ही बगावत चलती है
गो तख़य्युल के साथ-साथ लफ़्जों की पासबानी होती है,
कुछ खास तो करती नहीं.. .पर
खुद बयानी सादा-हर्फी पर हमारी ही दहशत चलती है,
क्या करु...
खिलाफ़त जब आंधियाँ करती है तो जुरअत और बढती है।
©पम्मी सिंह
(दरपेश -सामने, मसाइलो -मुसिबत, तख़य्युल -विचारो, ,पासबानी-पहरेदारी,जुरअत-हौसला )
वाह ! बहुत सुंदर ! बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteयह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..
Deleteबहुत ही सुंदर कविता अंतर्मन से लिखी गयी बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteयह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..
Deletewaah bahut hi khoob likha hai ... man ke gahre dwand ko likha hai ...
ReplyDeleteआभार रचना पर आपसे मिलने वाली प्रतिक्रियाएँ प्रोत्साहन देती हैं ।
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteवाह!!
यह प्रतिक्रिया मिलना तो मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..
Deleteअति उत्तम शब्द चयन पम्मी जी...
ReplyDeleteआभार रचना पर आपसे मिलने वाली प्रतिक्रियाएँ प्रोत्साहन देती हैं ।
खिलाफ़त जब आंधियाँ करती है तो जुरअत और बढती है।
ReplyDelete...वाह ....बहुत ख़ूबसूरत अहसास और उनकी सुन्दर अभिव्यक्ति...
आभार सर.. रचना पर आपसे मिलने वाली प्रतिक्रियाएँ प्रोत्साहन देती हैं ।
Bahut khoobsoorat rachna....
ReplyDeleteMere blog ki new post par aapka swagat hai
यह प्रतिक्रिया मिलना तो मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..
Deleteखुद के लफ्ज़ों से हमारी ही बगावत चलती है
ReplyDeleteगो तख़य्युल के साथ-साथ लफ़्जों की पासबानी होती है,
वाह!!! और उससे भी ज्यादा और उम्दा 'वाह' इस बात की, कि तख्ख्युल की पासबानी में लफ्जों को आपने ऊर्दू चखा दी! बहुत बढ़िया! ये अंदाज़ बना रहे,
रचना पढने व उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद,
सादर आभार.