अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
Dec 31, 2022
शउर बता कर गुज़रता अबके बरस..
Oct 7, 2022
इक कसक रह गई...
💐💐💐
जाते जाते इक कसक रह गई
मैं पहुंची पर आप सो गई,
तंग हो गई है दामन की दुआएँ आजकल,
पर,जिंदगी की इम्तिहान बड़ी हो गई।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
💐💐💐
सब बोलते हैं तुम तो उषा की भोर हो,
भीगी हुई शाम हो चली हो,वही शोर हो।
इक साड़ी और बाली अब भी पास- पास है,
उनमें समायी खुशबू,वो शीरीं बहुत खास है।
अधिकतर धुंधली सी तस्वीरे उभर आती हैं,
और,मेरे तआरुफ़ की ख़ैर ओ ख़बर आती हैं।
राख कुरेद कर हासिल कुछ नहीं होता,
मेरी रौनकें,कहकशां के रास्ते इधर आती है।
सलीके से गर दिल की बात कहें तो,
शहर के भीड़ में भी तन्हाई की ख़बर आती है।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
Jul 17, 2022
धागे समेट लूँ..
ग़ज़ल
आँखों से महव ए ख्वाब, भुलाया न जाएगा,
अश्कों को रोज- रोज, मिटाया न जाएगा।
हर पल लगें कुछ छूट रहा स्याह ख्वाब से,
दिल में अब शाद ख्याल, सजाया न जाएगा।
दौरे सफर में आज, कल की कुछ खबर नहीं,
बेकार की उम्मीद अब' निभाया न जाएगा।
भीगे हुए पल ओढ कर, धागे समेट लूँ,
जाते लम्हों को यूँ अब गवाया न जाएगा।
औरों की क्या हम बात करें क्यूँ, गुम खुद हुये
हर बात के किस्से अब, लिखाया न जाएगा।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
स०स०११७२७/२०२१
Apr 29, 2022
तवील राहों के किस्से..
होती है इन रिश्तों से किरदारों की बारिशें
कि इक मैं हूँ इक तुम हो... हमारी... तवील राहों के किस्से।
इक मैं हूँ.
भरू रंग कौन सा आँगन में...पिया बोल दे
भीगू आज मैं किस सावन में...पिया बोल दे
होगी जन्म-जन्मांतर की बातें... फिर कभी,
आज भरूँ मांग किस दर्पण से... पिया बोल दे।
इक तुम हो..
लाऊँ वो लफ्ज़ कहाँ से जो सिर्फ तुझें सुनाई दें,
सजाऊँ वो चाँद कहाँ पर जो सिर्फ तुझें दिखाई दें,
बताएँ क्या इन रिश्तों के तासीर का आलम तुम्हें,
बुनू वो आसमां कहाँ पर जो सिर्फ तुझें नुमाई दें।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
Apr 11, 2022
गवाक्ष सी लघुकथाएं..
साहित्यिक और नवीनता की तलाश में एक और कदम..."लघुकथा कलश" अप्रकाशित रचनाओं के संग अपनी विशिष्टताओं के कारण व्यापक जनमानस तक पहुंचने का माद्दा रखतीं हैं। अच्छा लगता है जब पुस्तक के हिस्से बनते हैं और बहुत अच्छा लगता है जब विशिष्ट समकालीन संदर्भ और तुर्शी के साथ जीवन,समाज के पहलूओं पर चोट करतीं लघुकथाओं के रचनात्मक कार्यों के बीच एक नाम अपना भी देखतें हैं।
अल्पसंख्यक विमर्श कुमार संभव जोशी जी द्वारा चर्चा के दौरान समाज के कई पहलुओं से दो -चार होते हैं।
विमर्श क्या है?अल्पसंख्यक शब्द का तात्पर्य गंभीर संवाद की ओर मोड़ती है।
'तथागत' नक्सलवाद पर अधारित साकारात्मक संवेदनाओं को लेकर बुनी लघुकथा बहुत बढ़ियाँ।
'चौथी आवाज' लघुकथा साहसिक, समयानुकूल प्रशन उठा रही,'क्षमा कीजिए मंत्री जी,मैं इस देश के बहुसंख्यक वर्ग से हूँ, लेकिन समान्य नागरिक होने के नाते एक बात पूछना चाहता हूँ' मानो कह रहे बहुसंख्यक का क्या और क्यूँ कसूर?
अंत में वर्णित विभिन्न पहलुओं पर वैचारिक रूप और उनके द्वारा स्थापित किये रचनाओं का व्याख्यान पठनीय है। लघुकथा में सही शब्द की खोज विषय में शब्द सारणी द्वारा शब्द, विचार, समय की व्याख्या की गई है। रचनात्मकता के विभिन्न पहलुओं पर सार्थक चर्चा के दौरान सहज ही ' दर्शन शास्त्र और लघुकथा पर ध्यान जाता है। 'मैं सोचता हूँ, अतः मैं हूँ।,'मैं महसूस करता हूँ अतः मैं हूँ','मैं पढता हूँ, अतः मैं हूँ'... अंत में ' मैं लिखता हूँ, अत:मैं हूँ। लिखने की चाह रखने वाले व्यक्ति लिए सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।लघुकथा पर वैचारिक नियंत्रण और संतुलन की विशेषता ही प्रभावित करता है। विषय-वस्तु के
क्रमानुसार विश्लेषणात्मक विविरण गवाक्ष है लघुकथा के लेखन, निरूपण और सृजनात्मक सरोकार की।
रचनाकार आ०योगराज प्रभाकर जी के साहित्यिक गतिविधियाँ के लिए नमन।
शतशः बधाइयाँ
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
Mar 31, 2022
चाँद के ज़द...
नस्री नज़्म अपनी सी...
चाँद के ज़द..
खुद को चाक पे रखकर आज फिर संभल रहीं
बदमिजाज सरहदें मन की आज फिर मचल रहीं,
माना अभी सहमे से इक चाँद के ज़द में हूँ
कैसे डूबे, कैसे उभरे की मद भी..खूब रहीं,
ओढ़ लेतीं हूँ खामोशी कई दफ़ा जीने की मश्क्कत में
मांगकर इजाजत मेरी,इन आइने के सवाल...खूब रहीं,
क्या बात है कि मुक्कमल आजकल बात होती नहीं
बेरुखी सी पुरवाई , चढ़तीं धूप की तख़सीस...खूब रहीं
मसला ये नहीं थी ख़्वाबों से हम क्यूँ जाग गए
मांगी,चंद सांसों की इज़ाज़त,औ उनकी उज्र...खूब रहीं,
शिकायतें ये भी नहीं कि हमीं तक क्यूँकर गुज़रीं
पर,सलीके से ही, ज़िंदगी के खास तजुर्बे...खूब रहीं,
बिख़र जाये हम अज़ी कहाँ.. चाँद वाली ग़ज़ल में
थोड़ी नाकामियों को सजाने के हुनर... खूब रही।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
(उज्र-एतराज, तख़सीस-विशेषता,मुख्यता, मद-नशा,ज़द-चोट,
Jan 13, 2022
टप्पे/माहिया
टप्पे/माहिया
(नवा वर्ष, ठंड,मकर संक्रांति, लौहड़ी)
जरा शॉल तो ओढ माहिया ( २)
नवा साल है जरूर
इत उत न डोल माहिया
हट जा परे सोनिये (२)
छोड़ जरा.. घड़ी दो घड़ी
नवा साल मनाना है।
तू तो उड़ती पतंगा है (२)
शोलों की है यहाँ झरी
आज तो मन मलंगा है।
आसमां की तरफ देखो ( २)
मौसमों की ताबों में
आस्ताँ न भुलाया करों
तू बड़ा ही सयाना है २
भूलों गम घड़ी- दो -घड़ी
दो पल का जमाना है।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
Jan 7, 2022
टप्पे/ माहिया
Jan 3, 2022
शब्द है वहीं जानी पहचानी सी ..
लीजिए 21 वी सदी के बाईसवें साल में हमारे मुस्कराने की वजह ये ही बनी..
"शब्द है वहीं जानी पहचानी सी जरूर कुछ बात है,
शहरियत है,तर्बियत भी मानी सी जरूर कुछ बात है।"
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
GLOBAL RESEARCH JOURNAL
(peer-reviewed (refereed) journal)
ग्लोबल रिसर्च कैनवास
(द्विभाषी त्रैमासिक शोध पत्रिका ) में प्रकाशित हमारी भी
शब्द-
निधि पेज न०8-10 ...विषयक - ,'देश की स्वाधीनता का वर्तमान स्वरूप'
https://documentcloud.adobe.com/link/track?uri=urn:aaid:scds:US:c24ec024-23b7-46fd-a3a5-4cc4821535e7
Women's rights
Grihshobha is the only woman's magazine with a pan-India presence covering all the topics..गृहशोभा(अप्रैल द्वितीय) ( article on women...
-
तुम चुप थीं उस दिन.. पर वो आँखों में क्या था...? जो तनहा, नहीं सरगोशियाँ थीं, कई मंजरो की, तमाम गुजरे, पलों के...
-
कहने को तो ये जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत असबाब और हम न जाने किन चीजों में उलझे रहते है. हाल चाल जानने के लिए किसी ने पू...
-
फितूर है..ये, कई दफा सोचती हूँ.. बड़ा अच्छा होता जो 'मैं' तुम्हारे किरदार में होती.. मैं तुम होती और मेरी जगह त...