Dec 10, 2021

लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,..

 लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,








इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,

क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम


दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,

क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।


लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,

क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।


चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,

क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।


यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,

क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'


शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी

Oct 29, 2021

अप्रकाशित कमजोर लघुकथा

 






विश्व भाषा एकादमी(रजि),भारत की राजस्थान इकाई द्वारा लघुकथा पर अनोखा कार्य।

अनूठा श्रमसाध्य लघुकथा संग्रह। यह संग्रह न केवल विशिष्ट रूप में है बल्कि लघुकथा के शोधकार्यो में भी सिद्ध होगा।

शुभकामना संग हार्दिक आभार।

Page no 76 पर मेरी रचना।


यह संग्रह निम्न लिंक पर पढा जा सकता है।

https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html



https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html?


Oct 6, 2021

रस्मों में यूँ रुस्वा न करों मुझको..

 


इक साज हमारा है इक साज तुम्हारा है
लफ्जों संग वो साहब- नाज़ तुम्हारा है,


इल्जाम लगाकर यूँ जख्मों को सजाए क्यूँ
चलों धूप हमारी है, सरताज तुम्हारा है,


अब कौन यहाँ जज़्बातों की फ़िक्र करता है
हर बार कसम दे अपनी, मि'जाज तुम्हारा है,


रस्मों में  यूँ रुस्वा न करों मुझको
फूलों से' भरा आँगन, औ ताज तुम्हारा है,

ये वक्त नुमायाँ है या शामिल तकदीरें
अब कैद रिहाई की रस्में',
अंदाज तुम्हारा है...#तृप्ति
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️



साहब नाज.. companion of grace.
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Aug 5, 2021

ई-लघुकथा समीक्षा

   पुस्तक - हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार (ई- लघुकथा संकलन)

संपादक- विजेन्द्र जैमिनी

 समीक्षक- पम्मी सिंह 'तृप्ति'

यह लघुकथा एक हद तक मानवीय संवेदनाओं के साथ सामाजिक अवमूल्यन, विरोधाभास परिस्थितियों को समेटे है। समाज के प्रचलित, अप्रचलित विषयों के साथ नित्य घटनाओं के अनेक रूपों को लघुकथा के माध्यम से यहाँ वर्णित किया गया है। जैसा कि हम सभी जानते है साहित्य के क्षेत्र में  वक्त का अपना महत्व है और यह भविष्य की पीढियों के लिए यह एक प्रमाणित दस्तावेज के रूप में स्थापित हो सकता है। एक सौ एक (101) लघुकथाकारों की ग्यारह सौ ग्यारह (1111)  लघुकथाओं से संकलित लघुकथा संवेदनाओं और भावनाओं का सागर है, जो एक नई व्यापक दृष्टि देतीं है।करोना काल में ई-लघुकथा का संकलन बदलते दृष्टिकोण और समय की मांग है। विजेन्द्र जेमिनी जी की संपादकीय कार्य समयानुसार सर्वांगीण बहाव के साथ एक जिम्मेदारी का भी अहसास कराती है। विगत कुछ वर्षो से उनके संपादन में कई कविताओं, विषयपरक कथाओं, लघुकथाओं से गाहे बगाहे परिचित होती रही हूँ पर यहाँ देश ,विदेश ,राज्य के अनुसार लेखकों का चयन, निश्चय ही सोच के विस्तार को प्रतिविम्बित कर रही है। रचनाकारों की छवि संग साहित्यिक परिचय क्रमानुसार लघुकथा के शीर्षक शब्द-शिल्प के साथ कलात्मकता के परिचायक प्रतीत हो रहे हैं।

लाला भइया करने के बजाय राजकुमार निजात जी की 'कट्टरता'में मानवीय मूल्यों को नयी पीढी के द्वारा बखूबी दिखाया गया है। ज्ञान देव मुकेश जी की 'पास की दूरियां वर्तमान समय की रूप रेखा को दिखा रही है तो ' स्वार्थ की तेरहवीं ' "जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई '' कहावत को चरितार्थ कर रही अर्थात उनकी तेरहवीं कुछ ज्यादा ही लंबी चलती है।

योगेंद्र शुक्ल जी की चाकलेट डे लघुकथा वर्तमान पीढियों पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को दिखाया गया है,

“आप टीवी नही देखते....? क्‍या अंकलजी आप भी....!” 

इसी तरह 'मोह के बंधन','ख्वाहिश' लघुकथा मानवीय मूल्यों को दर्शाता है। करोना काल से संबंधित विषय और रिश्तों के बदलते मौसम को डॉ मिथिलेश दीक्षित जी  की 'सुरक्षा कवच ' सफल रही हैं। ज्योतिर्मयी पंत जी की 'अनोखा रिश्ता ' के वाक्यांश 'सुनो बहन !हमारा रूप ही दोषी है।' सुप्त संवेदनाओं में हलचल पैदा कर रही है। अशोक दर्द जी की लघुकथा 'आदमी और कुत्ते' में प्रतिकात्मक लेखन के जरिये संदेश दिया है। 'हमारी जात को गलियां क्यों बक रहे हैं'। डॉ मंजूला हर्ष जी, 'ट्रेलर' प्रकृतिक अवमूल्यन की भयावहता को इंगित करती वही 'दिये की अभिलाषा'  के जरिये कमला अग्रवाल जी संदेश देने में सफल रही।'टी वी के किसान ' "बेटी, ऐसी कौन-सी योजना है जो किसानों के चेहरे पर इस तरह की...?" संदेश प्रभावी ढंग से संप्रेषित हो रही है। 'फैसला' स्त्रियोचित स्वभाव के हद  को दिखाने में सफल रही। ध्यानाकर्षित करती शीर्षक ' ठहाके गिरफ्त में ' शब्द- शिल्प बहुत सुंदर पर टंकण त्रुटियां से प्रवाह गिरफ्त में हो रही है।


'साहब पैसे कील के नही जूते उठाने के लेता हूँ' वाक्यांश द्वारा डॉ भूपेन्द्र कुमार जी की लघुकथा ' जूते की कील ' मीर साबित हो रही है। ' मेरी नजर में "दरोगा जी" ही बड़ा है।' वाक्य से लघुकथाकार विजेन्द्र जेमिनी जी बखूबी दाने - दाने पर मोहर  जिक्र किए गए हैं। सतीश राठी जी, की 'रैली" लघुकथा की उदृत पंक्ति 'हम तो इंतजार कर रहे हैं सरकार का संयम टूटने' समसामयिक विषय,राजनीतिक महत्वकांक्षा पर सटीक प्रहार है।

इस लघुकथा के महासमर से गुजरने में करीब सात दिन लग गयें। हर पन्ने पर विचार विमर्श किया जा सकता है।"आप कहाँ खो गए? मैं , अपनी गलती स्वीकार तो करती हूँ। लेकिन उन एक सौ पैतालीस लोगों को क्या कहूँ जिन्होंने एमोजन को दिए इसके फीडबैक को पसन्द किया और इसे सही ठहराते हुए शाबासी दिया।" विभा जी ने सांकेतिक भाव में दोहरी सोच को दर्शाया है।

'डील' लघुकथा ऑफिस के सभ्याचार विवेचन योग्य है। संतोष गर्ग जी की 'छोटी सी बात' परिपक्व सोच के साथ जिम्मेदारी की अहसास कराने में सफल हो रही है। 'भीड़भाड़ में अंतर ' लघुकथा की  "पिताजी! देखिये, यहां पर भी कितनी भीड़ है। वाक्य मानवीय संवेदनाओं पर गहरा कुठाराघात है जो बदलते परिवेश  में गहरी  चिंतन का विषय है। संगीता जी  'सम्बल' लघुकथा मन मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालने में सफल रही कि, "आप तब भी नहीं थे और आज भी आपकी आवश्यकता नहीं है"। इस संग्रह में शामिल प्रत्येक लघुकथा का विशेष महत्व है किंतु 'पेट का तमाशा', 'वसुधैव कुटुम्बकम' , 'गुरुर' , 'वुमरैंग', 'मर्यादा हनन', 'शतरंज का वजीर' कथानक के साथ शीर्षक भी न्याय करती है। 'सबक' पूर्णिमा मित्रा जी की बेहतरीन  लघुकथा है संवाद शैली में ,'नदी किसी क्वांरी कन्या सी चुलबुली सी गैरजिम्मेवार और समुद्र किसी विवाहिता की तरह कर्तव्य और मर्यादा की श्रृंखला से बंधीहुयी',  उत्कृष्ट शब्द भाव को चित्रण करने सफल हो रही है। गोकुल सोनी जी ,'कैरियर' लघुकथा बाल मनोभावों प्रतीकात्मक रूप में दिखाया गया।

'ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है'

वहीं 'एक्लव्य' लघुकथा आरक्षण से प्रभावित एक वर्ग के दर्द को विशेष अंदाज में भी उकेरा गया है। कान्ता रॉय जी की लघुकथा ,'क़ागज़ का गाँव' सरकारी महकमे के निष्क्रियता और हवा महल बनाने की ओर इंगित कराने का सार्थक प्रयास है।

कई रचनाकारों के नाम नहीं दे पायी उन सबों से क्षमाप्रार्थी  हूँ,पर सभी रचनाएँ असर छोड़ने में कामयाब रही है। 

कुछ लघुकथाएँ  सपाट कथन भी बन पड़ीं है पर शब्द विविधता,लेखन शैली पर सदैव मतभिन्नता बनीं रहतीं है ,यह भी अपवाद नहीं है। यह लघुकथा संकलन विशिष्ट स्थान बनाने में सक्षम। नव लघुकथाकार, स्थापित लघुकथाकारो के बीच रचना प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दी गई है।बेजोड़ श्रमसाध्य सफल योजना। विजेन्द्र जी

लघुकथा के प्रति उनकी सजग गांभीर्य किस्म की प्रतिबद्धता  है। इन सभी रचनाओं से गुजरते हुए कई किरदारों, घटनाओं के संदेश दे रही हैं। अन कहे कुछ शब्द, भाव और संदेश कई लघुकथा में अपना वजूद बनाने में सक्षम है।

इस संग्रह के अतुलनीय श्रम के लिए बधाई। मीर तक़ी मीर के शे'र जिक्र कर रही

"बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो 

ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो"


धन्यवाद।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'

द्वारका

दिल्ली


http://bijendergemini.blogspot.com/2021/06/blog-post_9.html?m=1


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Jul 31, 2021

खग वृंद



 Batch of 2020- 2021 online batch really deserve it. In a short sentence ," New ways of thinking and to cope with different situation "

पीछे मुड़कर देखतीं हूँ तो कल की ही बात लगती है.. स्कूटी से लाते वक्त पीछे मूँह कर बैठ जाना, कभी हिलडुल करना, हेलमेट न पहनने की जीद्द करना और मेरा सख्ती कर बोलना हमलोग यहीं बैठ जाते हैं, फिर ड्राइविंग सीट पर बैठतें ही अपने से पहले मुझे सीट बेल्ट लगाने के लिए बोलना... लगता है सब बहुत जल्दी बित गया, पर समय की तो अपनी ही चाल है .

इसी बात पर जाते - जाते शगुन के साथ,उसके सभी सहपाठियों के लिये..✍️


हर नई सोच का मज़मून बना लेना

फ़लक को छूकर जमीं से निभा लेना,


गूजरें चौदह साल खूबान -ए -जहाँ  में

फ़त्ह के अंदाज में भी आलिमों से दुआ लेना


बनाकर हौसले तुम उँची उड़ानों की

दामन के काँटों को थोड़ा सजा लेना,


 ठोकरें भी आती हैं कदमताल से ही

 जमाने के निगाह से हौसले बचा लेना,


 सुब्ह बिखरी हुई 'शगु','शुभ' के राहों में

 'तृप्ति'अपनी गौहरों को सीप में छुपा लेना।

 पम्मी सिंह 'तृप्ति'

बहुत - बहुत शुक्रिया।

सादर...✍️


(ख़ूबान ए जहाँ-best of the world,मज़मून- subjectफ़लक-sky, आलिमों- scholarly 'here use for teacher' गौहरों-pearls,)

Jul 5, 2021

यहाँ जिंदगी इतनी ख़फा नहीं..

 

कई दिनों बाद ...थोड़ी सी सुकून और कलम...गानें के साथ 


हालत ये मेरे मन की, जाने ना जाने कोई
आई हैं आते आते होठों पे दिल की बातें..

क्योंकि यहाँ जिंदगी इतनी ख़फा नहीं, आकाश सी बदलती रंग है पेश है चंद मुक्तक..जिसे १२२२, १२२२,१२२२,१२२२ बहर पर ..समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का स्वागत है✍️

१.

जमानें हार कर हमनें अब जाना,ये इशारे है

यहीं पर चाँद है मेरा, यहीं पर हीं सितारे हैं

खुले दर ही सही पर फासलें यूँ ही नहीं रहतें

महज़ दि'लों की इबादत से कई दीवारें हारे हैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
२.
कि तेरा साथ मिल जाए सफर सामान हो जाए

दिल से दिल की तआरुफ़ बस आसान हो जाए

अजब सी दिल्लगी जूनून तारी रहा मुझ पर

दिलों के दरमियाँ ये फासलें अनजान हो जाए।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
३.
मुझे तुम भूल जाओगे कि वो मंजर नहीं हूँ मैं
ज़रा सी बात पर रूठे कि वो पिंजर नहीं हूँ मैं
बचीं अब भी वहीं दीवानगी जो रौनकें देती-
सहर को शाम जो समझें कि वो मंतर नहीं हूँ मैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


Apr 16, 2021

गुलाबी यादे..

" रब की बख्शी गई उम्र के बागीचे में से

मैंने एक आज इक और उम्र चोरी की है..

क्या हुआ जो चाँद तारे दामन में न गिरें

अपने सितारों से खूब दिलजोई की है।"...



ओ मेरी जिदंगी हर दिल्लगी के लिए शुक्रिया

यादे मुड़ रही उस गली में जहाँ माँ, मौसी की बोलियां कभी थी ..

'एई चकभामा चक चक करेलू.."

 यादों की शज़र से फिर गिरा पत्ता 

 एक कोंपल फिर उग रहा.. 

बहनों संग खेलना बोरी बिछा कर बाल काट देना, कभी 

माचिस जला कर बेसिन में भरे पानी डूबों देना, बिन बात के छोटी बातों पर हँसते जाना,

खड़ी जीप (राँची,कुसाई कालोनी B/7.. Quarter r जीप न० BRV 5192) में सब कजिन पिन्टू, सिन्टू, और हम सब बहन अगल, बगल के दोस्त ) स्टियरिंग घुमा घुमा कर पूरी दुनिया घुम आते..इतना बिजी कि उफ़ निकल जाये।

नकल करने में माहिर.. गाना सुनाने के लिए कोई बोले तो..

आजा सनम मधुर चाँदनी में हम...तुम मिले तो जिया...

पूरा का पूरा सुना दी..जब छठी क्लास में.. मम्मी बोली तुम ये गाना कहाँ से सीखी वो भी पूरा..

बड़ा नखरे दिखा कर बताई..बस से जब घर आतें है तब पिछे वालीं सीट पर बड़ी क्लास मतलब (10वी) दीदी लोगों गाती हैं तो मैं भी सुन कर सीख गई...

दूसरी बार गाना.. मौसेरी बहन के  आरा शहर के कर्जा गाँव में कांति दी के शादी में..एकदम अलग..हाथी, घोड़ें की दौड़  हुई थी.. खूब मज़ा आया.. हमलोग छत पे बैठ कर गाना की फरमाइश हुआ.. बम्बई से कुछ रिश्तेदार आये थे.. सब बोले चलो गाना सुनाओं हम में से किसी को गाना नहीं आता तो तुम जो भी सुनाओगी हमलोग से बेहतर ही..फिर अपनी सेफ्टी जोन देख फिर गाई..कितने भी कर ले सितम ,,हँस हँस कर सहेगें हम..सनम तेरी कसम...

फिर सनम को दो सेकंड तक बोल कर कम्पीटीशन लगाते रहे..

तीसरी बार फिर ऑन डिमांड पर गाना गाई..

शायद मेरी शादी का ख्याल  दिल में आया है...नवी कक्षा में थी

तब..

मम्मी फिर अलग लहजे में बोली.. अभी तहार बियाह हो ता..गईबू ढेर गाना ..फिर तो जो चुप लगाई कि बस..

कई वर्षों बाद ..पैर का ऑपरेशन हुआ तो मम्मा बेड पर थी..मैं  काम निपटाते हुए गुनगुना रही ...सुबह सुबह...आज हम इश्क इजहार करें तो क्या हो... 

जान पहचान से इनकार करें तो क्या हो..

तो बोलीं ई कौन सा गाना  कि शायरी गा

 रही हो..तनि फिर से गाव तो.. मैं बोली आप तो ये पिक्चर जरूर देखी होगी.. हम्म.. हाँ..आगे गा..अच्छा लगता है.. घर में गुनगुनाती औरतें , चेहरे की हँसी माहौल बना देता है। ऐसे ही हँसों और गाव..तुमलोग को देख हमको सुकून मिलता है। बेकारे डाट डपट दिये थे..

वैसे बचपने की बातें माँ, पापा के ज़बान से जादा अच्छी लगती हैं। हैं.. न..

 जानती हूँ माँ, पापा और आप सब देख रहे हैं मुस्कराते हुए, 

 जो छू कर गुजर रही सीली

 हवाओं की तरह सहलाते हुए,

 पिघले मोम की तरह ढल रही हूंँ समय के साचे में

कुछ शिकायतें कुछ जिद्द बड़ी अपनी सी पर..

 कोई तो है अंदर जो संभाले हुए है इसलिए

 ओ मेरी जिंदगी तेरी इस नज़र का शुक्रिया।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..


कुछ अलग सी दिलकशी सी..सुने..

समझे तो जरुर🙂



Mar 26, 2021

जोगीरा...

  

जोगीरा...

पल में तोला पल में माशा,होगें सब फरार,

 चुनावी तपिश में सब नेता, रंगें हुये सियार,

 जोगीरा सारा रा रा रा...

 🔅🔅

 नेताओं के रूप देखकर, बिच्छू भी है दंग,

 मुद्राओं के जुगाड़ नीति से,मचा खूब  हुडदंग।

 जोगीरा सारा रा रा रा।

🔅🔅

असली राजनीति बाकी है, फेको न अब जाल

 बिछाये हुए नये चाल से, अब न होगा बवाल।

 जोगीरा सारा रा रा रा

🔅🔅

लाग लपेट की दुनिया में, हुए सभी मगरूर,

खीच कर पैरों तलें जमीन, बने रहे मशहूर।

जोगीरा सारा रा रा रा

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️


Mar 15, 2021

होली/ माहिया

 








 (इशरार करती माहिया...क्या करूँ होली आ रही है न तो थोड़ी तुनकमिजाजी बनतीं हैं..✍️)



जमाना बहाना है,

भीगी होली में

अब होश उड़ाना है।


रंगों के किस्से हैं,

मुस्कराते गुंचे में 

फसानों के हिस्से हैं।


दीदार कराया करों

 दुपट्टे के ओटों

 छत पर आया करों


छत पर तो आ जाऊँ,

अजब सी चुभन है

दिल में न छुपा पाऊँ।


छलकी अब क्यूँ आँखें,

दिल्लगी थी थोड़ी

वफ़ा जफ़ा निभा लेगें।


छोड़ों जाने भी दो माहिया

रंगरेज बना न करों

हमख्याल बन जाओं माहिया।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...




कैसी अहमक़ हूँ

  कहने को तो ये जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत असबाब और हम न जाने किन चीजों में उलझे रहते है. हाल चाल जानने के लिए किसी ने पू...