Dec 10, 2021

लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,..

 लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,








इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,

क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम


दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,

क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।


लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,

क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।


चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,

क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।


यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,

क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'


शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी

17 comments:

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    1. शुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार आ०🙏

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१६-१२ -२०२१) को
    'पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर '(चर्चा अंक-४२८०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. रचना का चयन "चर्चा मंच" पर होना एक गर्वित अनुभूति है ।
      आभार अनीता जी।

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    1. उत्साहवर्धन प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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    1. प्रशंसनीय प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक नमन एवम वंदन आ०

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  5. वाह पम्‍मी जी, बहुत खूब ल‍िखा....
    चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,

    क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।...

    इसी शबीह पर एक शेर याद आ गया-
    "हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने,
    तन्हा भी हम नहीं थे तिरे साथ भी न थे
    "

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    1. वाह!!लाजवाब शेर...सच में प्रसंगवश शेर चार चांद लग रहा है।
      हृदय तल से आभार।

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  6. बेहतरीन गज़ल दी
    हर बंध अर्थपूर्ण।
    बधाई दी।
    प्रणाम
    सादर।

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    1. जरूरत थी मुखरित मौन के उत्साहवर्धन की।
      धन्यवाद।

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  7. इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,

    क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम

    वाह!!!


    दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,

    क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।
    अपनी खताएं दिखती ही किसे हैं यहाँ
    लाजवाब गजल
    एक से बढधकर एक शेर।

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    1. प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन आ०

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  8. वाह अप्रतिम सृजन

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