लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,
इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,
क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम
दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,
क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।
लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,
क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।
चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,
क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।
यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,
क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी
वाह !!!! लाजवाब 👌👌👌👌
ReplyDeleteशुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार आ०🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१६-१२ -२०२१) को
'पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर '(चर्चा अंक-४२८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
रचना का चयन "चर्चा मंच" पर होना एक गर्वित अनुभूति है ।
Deleteआभार अनीता जी।
वाह बेहतरीन 👌
ReplyDeleteजी,धन्यवाद।
Deleteलाज़बाब रचना।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन प्रतिक्रिया के लिए आभार।
Deleteलाज़वाब! वाकई!
ReplyDeleteप्रशंसनीय प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक नमन एवम वंदन आ०
Deleteवाह पम्मी जी, बहुत खूब लिखा....
ReplyDeleteचाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,
क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।...
इसी शबीह पर एक शेर याद आ गया-
"हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने,
तन्हा भी हम नहीं थे तिरे साथ भी न थे
"
वाह!!लाजवाब शेर...सच में प्रसंगवश शेर चार चांद लग रहा है।
Deleteहृदय तल से आभार।
बेहतरीन गज़ल दी
ReplyDeleteहर बंध अर्थपूर्ण।
बधाई दी।
प्रणाम
सादर।
जरूरत थी मुखरित मौन के उत्साहवर्धन की।
Deleteधन्यवाद।
इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,
ReplyDeleteक्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम
वाह!!!
दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,
क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।
अपनी खताएं दिखती ही किसे हैं यहाँ
लाजवाब गजल
एक से बढधकर एक शेर।
प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन आ०
Deleteवाह अप्रतिम सृजन
ReplyDelete