नस्री नज़्म अपनी सी...
चाँद के ज़द..
खुद को चाक पे रखकर आज फिर संभल रहीं
बदमिजाज सरहदें मन की आज फिर मचल रहीं,
माना अभी सहमे से इक चाँद के ज़द में हूँ
कैसे डूबे, कैसे उभरे की मद भी..खूब रहीं,
ओढ़ लेतीं हूँ खामोशी कई दफ़ा जीने की मश्क्कत में
मांगकर इजाजत मेरी,इन आइने के सवाल...खूब रहीं,
क्या बात है कि मुक्कमल आजकल बात होती नहीं
बेरुखी सी पुरवाई , चढ़तीं धूप की तख़सीस...खूब रहीं
मसला ये नहीं थी ख़्वाबों से हम क्यूँ जाग गए
मांगी,चंद सांसों की इज़ाज़त,औ उनकी उज्र...खूब रहीं,
शिकायतें ये भी नहीं कि हमीं तक क्यूँकर गुज़रीं
पर,सलीके से ही, ज़िंदगी के खास तजुर्बे...खूब रहीं,
बिख़र जाये हम अज़ी कहाँ.. चाँद वाली ग़ज़ल में
थोड़ी नाकामियों को सजाने के हुनर... खूब रही।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
(उज्र-एतराज, तख़सीस-विशेषता,मुख्यता, मद-नशा,ज़द-चोट,