Mar 31, 2022

चाँद के ज़द...



 नस्री नज़्म अपनी सी...

चाँद के ज़द..


खुद को चाक पे रखकर आज फिर संभल रहीं

बदमिजाज सरहदें मन की आज फिर मचल रहीं,


माना अभी सहमे से इक चाँद के ज़द में हूँ

कैसे डूबे, कैसे उभरे की मद भी..खूब रहीं,


ओढ़ लेतीं हूँ खामोशी कई दफ़ा जीने की मश्क्कत में

मांगकर इजाजत मेरी,इन आइने के सवाल...खूब रहीं, 


क्या बात है कि मुक्कमल आजकल बात होती नहीं

बेरुखी सी पुरवाई , चढ़तीं धूप की तख़सीस...खूब रहीं


मसला ये नहीं थी ख़्वाबों से हम क्यूँ जाग गए

मांगी,चंद सांसों की इज़ाज़त,औ उनकी उज्र...खूब रहीं,


शिकायतें ये भी नहीं कि हमीं तक क्यूँकर गुज़रीं

पर,सलीके से ही, ज़िंदगी के खास तजुर्बे...खूब रहीं,


बिख़र जाये हम अज़ी कहाँ.. चाँद वाली ग़ज़ल में

थोड़ी नाकामियों को  सजाने के हुनर... खूब रही।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


(उज्र-एतराज, तख़सीस-विशेषता,मुख्यता, मद-नशा,ज़द-चोट,

Jan 13, 2022

टप्पे/माहिया



टप्पे/माहिया

(नवा वर्ष, ठंड,मकर संक्रांति, लौहड़ी)


जरा शॉल तो ओढ माहिया ( २)

नवा साल है जरूर

इत उत न डोल माहिया


हट जा परे सोनिये (२)

छोड़ जरा.. घड़ी दो घड़ी

नवा साल मनाना है।


तू तो उड़ती पतंगा है (२)

शोलों की है यहाँ झरी

आज तो मन मलंगा है।


आसमां की तरफ देखो ( २)

मौसमों की ताबों में

आस्ताँ  न भुलाया करों


तू बड़ा ही सयाना है २

भूलों गम घड़ी- दो -घड़ी

दो पल का जमाना है।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️




Jan 7, 2022

टप्पे/ माहिया




टप्पे/माहिया

अफ़सानों की बातें
आँखों के वादे
क्यूँ नहीं समझ पातें

तू बड़ा ही सयाना है
इत उत बातों से
तू क्यूँ हाय रिझाता है
चल...
हट जा परे सोनिये
हँस दे घड़ी दो घड़ी
दो पल का जमाना है

पीर हिया की (मुझे) दे.. दे..
हाथ बढ़ातीं हूँ
इब रोज आना जाना है

ख्वाबों में मत आना
अरदास करूँ.. रब से 
तेरे नाल  जाना है।
  पम्मी सिंह ‘तृप्ति’.✍


Jan 3, 2022

शब्द है वहीं जानी पहचानी सी ..





लीजिए 21 वी सदी के बाईसवें साल में हमारे मुस्कराने की वजह ये ही बनी..

 "शब्द है वहीं जानी पहचानी सी जरूर कुछ बात है,

शहरियत है,तर्बियत भी मानी सी जरूर कुछ बात है।"

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

GLOBAL  RESEARCH JOURNAL

(peer-reviewed  (refereed)  journal)

ग्लोबल रिसर्च कैनवास

(द्विभाषी त्रैमासिक शोध पत्रिका ) में प्रकाशित हमारी भी

शब्द-

 निधि पेज न०8-10 ...विषयक - ,'देश की स्वाधीनता का वर्तमान स्वरूप'

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Dec 10, 2021

लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,..

 लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,








इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,

क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम


दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,

क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।


लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,

क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।


चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,

क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।


यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,

क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'


शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी

Oct 29, 2021

अप्रकाशित कमजोर लघुकथा

 






विश्व भाषा एकादमी(रजि),भारत की राजस्थान इकाई द्वारा लघुकथा पर अनोखा कार्य।

अनूठा श्रमसाध्य लघुकथा संग्रह। यह संग्रह न केवल विशिष्ट रूप में है बल्कि लघुकथा के शोधकार्यो में भी सिद्ध होगा।

शुभकामना संग हार्दिक आभार।

Page no 76 पर मेरी रचना।


यह संग्रह निम्न लिंक पर पढा जा सकता है।

https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html



https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html?


Oct 6, 2021

रस्मों में यूँ रुस्वा न करों मुझको..

 


इक साज हमारा है इक साज तुम्हारा है
लफ्जों संग वो साहब- नाज़ तुम्हारा है,


इल्जाम लगाकर यूँ जख्मों को सजाए क्यूँ
चलों धूप हमारी है, सरताज तुम्हारा है,


अब कौन यहाँ जज़्बातों की फ़िक्र करता है
हर बार कसम दे अपनी, मि'जाज तुम्हारा है,


रस्मों में  यूँ रुस्वा न करों मुझको
फूलों से' भरा आँगन, औ ताज तुम्हारा है,

ये वक्त नुमायाँ है या शामिल तकदीरें
अब कैद रिहाई की रस्में',
अंदाज तुम्हारा है...#तृप्ति
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️



साहब नाज.. companion of grace.
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Women's rights

 Grihshobha is the only woman's magazine with a pan-India presence covering all the topics..गृहशोभा(अप्रैल द्वितीय)  ( article on women...