पुस्तक - हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार (ई- लघुकथा संकलन)
संपादक- विजेन्द्र जैमिनी
समीक्षक- पम्मी सिंह 'तृप्ति'
यह लघुकथा एक हद तक मानवीय संवेदनाओं के साथ सामाजिक अवमूल्यन, विरोधाभास परिस्थितियों को समेटे है। समाज के प्रचलित, अप्रचलित विषयों के साथ नित्य घटनाओं के अनेक रूपों को लघुकथा के माध्यम से यहाँ वर्णित किया गया है। जैसा कि हम सभी जानते है साहित्य के क्षेत्र में वक्त का अपना महत्व है और यह भविष्य की पीढियों के लिए यह एक प्रमाणित दस्तावेज के रूप में स्थापित हो सकता है। एक सौ एक (101) लघुकथाकारों की ग्यारह सौ ग्यारह (1111) लघुकथाओं से संकलित लघुकथा संवेदनाओं और भावनाओं का सागर है, जो एक नई व्यापक दृष्टि देतीं है।करोना काल में ई-लघुकथा का संकलन बदलते दृष्टिकोण और समय की मांग है। विजेन्द्र जेमिनी जी की संपादकीय कार्य समयानुसार सर्वांगीण बहाव के साथ एक जिम्मेदारी का भी अहसास कराती है। विगत कुछ वर्षो से उनके संपादन में कई कविताओं, विषयपरक कथाओं, लघुकथाओं से गाहे बगाहे परिचित होती रही हूँ पर यहाँ देश ,विदेश ,राज्य के अनुसार लेखकों का चयन, निश्चय ही सोच के विस्तार को प्रतिविम्बित कर रही है। रचनाकारों की छवि संग साहित्यिक परिचय क्रमानुसार लघुकथा के शीर्षक शब्द-शिल्प के साथ कलात्मकता के परिचायक प्रतीत हो रहे हैं।
लाला भइया करने के बजाय राजकुमार निजात जी की 'कट्टरता'में मानवीय मूल्यों को नयी पीढी के द्वारा बखूबी दिखाया गया है। ज्ञान देव मुकेश जी की 'पास की दूरियां वर्तमान समय की रूप रेखा को दिखा रही है तो ' स्वार्थ की तेरहवीं ' "जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई '' कहावत को चरितार्थ कर रही अर्थात उनकी तेरहवीं कुछ ज्यादा ही लंबी चलती है।
योगेंद्र शुक्ल जी की चाकलेट डे लघुकथा वर्तमान पीढियों पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को दिखाया गया है,
“आप टीवी नही देखते....? क्या अंकलजी आप भी....!”
इसी तरह 'मोह के बंधन','ख्वाहिश' लघुकथा मानवीय मूल्यों को दर्शाता है। करोना काल से संबंधित विषय और रिश्तों के बदलते मौसम को डॉ मिथिलेश दीक्षित जी की 'सुरक्षा कवच ' सफल रही हैं। ज्योतिर्मयी पंत जी की 'अनोखा रिश्ता ' के वाक्यांश 'सुनो बहन !हमारा रूप ही दोषी है।' सुप्त संवेदनाओं में हलचल पैदा कर रही है। अशोक दर्द जी की लघुकथा 'आदमी और कुत्ते' में प्रतिकात्मक लेखन के जरिये संदेश दिया है। 'हमारी जात को गलियां क्यों बक रहे हैं'। डॉ मंजूला हर्ष जी, 'ट्रेलर' प्रकृतिक अवमूल्यन की भयावहता को इंगित करती वही 'दिये की अभिलाषा' के जरिये कमला अग्रवाल जी संदेश देने में सफल रही।'टी वी के किसान ' "बेटी, ऐसी कौन-सी योजना है जो किसानों के चेहरे पर इस तरह की...?" संदेश प्रभावी ढंग से संप्रेषित हो रही है। 'फैसला' स्त्रियोचित स्वभाव के हद को दिखाने में सफल रही। ध्यानाकर्षित करती शीर्षक ' ठहाके गिरफ्त में ' शब्द- शिल्प बहुत सुंदर पर टंकण त्रुटियां से प्रवाह गिरफ्त में हो रही है।
'साहब पैसे कील के नही जूते उठाने के लेता हूँ' वाक्यांश द्वारा डॉ भूपेन्द्र कुमार जी की लघुकथा ' जूते की कील ' मीर साबित हो रही है। ' मेरी नजर में "दरोगा जी" ही बड़ा है।' वाक्य से लघुकथाकार विजेन्द्र जेमिनी जी बखूबी दाने - दाने पर मोहर जिक्र किए गए हैं। सतीश राठी जी, की 'रैली" लघुकथा की उदृत पंक्ति 'हम तो इंतजार कर रहे हैं सरकार का संयम टूटने' समसामयिक विषय,राजनीतिक महत्वकांक्षा पर सटीक प्रहार है।
इस लघुकथा के महासमर से गुजरने में करीब सात दिन लग गयें। हर पन्ने पर विचार विमर्श किया जा सकता है।"आप कहाँ खो गए? मैं , अपनी गलती स्वीकार तो करती हूँ। लेकिन उन एक सौ पैतालीस लोगों को क्या कहूँ जिन्होंने एमोजन को दिए इसके फीडबैक को पसन्द किया और इसे सही ठहराते हुए शाबासी दिया।" विभा जी ने सांकेतिक भाव में दोहरी सोच को दर्शाया है।
'डील' लघुकथा ऑफिस के सभ्याचार विवेचन योग्य है। संतोष गर्ग जी की 'छोटी सी बात' परिपक्व सोच के साथ जिम्मेदारी की अहसास कराने में सफल हो रही है। 'भीड़भाड़ में अंतर ' लघुकथा की "पिताजी! देखिये, यहां पर भी कितनी भीड़ है। वाक्य मानवीय संवेदनाओं पर गहरा कुठाराघात है जो बदलते परिवेश में गहरी चिंतन का विषय है। संगीता जी 'सम्बल' लघुकथा मन मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालने में सफल रही कि, "आप तब भी नहीं थे और आज भी आपकी आवश्यकता नहीं है"। इस संग्रह में शामिल प्रत्येक लघुकथा का विशेष महत्व है किंतु 'पेट का तमाशा', 'वसुधैव कुटुम्बकम' , 'गुरुर' , 'वुमरैंग', 'मर्यादा हनन', 'शतरंज का वजीर' कथानक के साथ शीर्षक भी न्याय करती है। 'सबक' पूर्णिमा मित्रा जी की बेहतरीन लघुकथा है संवाद शैली में ,'नदी किसी क्वांरी कन्या सी चुलबुली सी गैरजिम्मेवार और समुद्र किसी विवाहिता की तरह कर्तव्य और मर्यादा की श्रृंखला से बंधीहुयी', उत्कृष्ट शब्द भाव को चित्रण करने सफल हो रही है। गोकुल सोनी जी ,'कैरियर' लघुकथा बाल मनोभावों प्रतीकात्मक रूप में दिखाया गया।
'ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है'
वहीं 'एक्लव्य' लघुकथा आरक्षण से प्रभावित एक वर्ग के दर्द को विशेष अंदाज में भी उकेरा गया है। कान्ता रॉय जी की लघुकथा ,'क़ागज़ का गाँव' सरकारी महकमे के निष्क्रियता और हवा महल बनाने की ओर इंगित कराने का सार्थक प्रयास है।
कई रचनाकारों के नाम नहीं दे पायी उन सबों से क्षमाप्रार्थी हूँ,पर सभी रचनाएँ असर छोड़ने में कामयाब रही है।
कुछ लघुकथाएँ सपाट कथन भी बन पड़ीं है पर शब्द विविधता,लेखन शैली पर सदैव मतभिन्नता बनीं रहतीं है ,यह भी अपवाद नहीं है। यह लघुकथा संकलन विशिष्ट स्थान बनाने में सक्षम। नव लघुकथाकार, स्थापित लघुकथाकारो के बीच रचना प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दी गई है।बेजोड़ श्रमसाध्य सफल योजना। विजेन्द्र जी
लघुकथा के प्रति उनकी सजग गांभीर्य किस्म की प्रतिबद्धता है। इन सभी रचनाओं से गुजरते हुए कई किरदारों, घटनाओं के संदेश दे रही हैं। अन कहे कुछ शब्द, भाव और संदेश कई लघुकथा में अपना वजूद बनाने में सक्षम है।
इस संग्रह के अतुलनीय श्रम के लिए बधाई। मीर तक़ी मीर के शे'र जिक्र कर रही
"बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो"
धन्यवाद।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
द्वारका
दिल्ली
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