हमारी किस्सागोइ न हो..इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की
पनाह में आ गए हैं,
अजी छोड़िए..
उजालों को..
यहाँ पलकें भी मूंद जाती है,
अंधेरा ही सही..
पर आँखें तो खूल जाती है,
हमने भी उम्मीद कब हारी है?
फिर नासमझी को
सिफत समझदारी से समझाने में
ही कई शब गुजारी हैं,
अब सदाकत के दायरे भी सिमटे
तभी तो झूठ में सच के नजारें हैं
जख्म मिले हैं अजीजों से
निस्बत -ए-खास से कुछ दूरी बनाए रखे हैं
छोड़िए इन बातों को..
जिन्दगी ख्वाबों ,ख्यालातों और ख्वाहिशों
कहाँ गुज़रती है,
रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही
समझदारी है ,इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की
पनाह में आ गए हैं..
©पम्मी सिंह..