जिंदगी न जाने क्यूँ पेश आती है
अजनबियों की तरह
इन आँखों में बसी ख्वाबों के, मंजर
अभी बाकी है
पीछे रह गए तमाम हसरतों के, अन्जाम
अभी बाकी है
वो क़हक़हा जो ठिठकी हैं दरख्तों पर,उनके
खिलने की अब बारी है
जुस्तजू हैं , सबकुछ में से कुछ के पाने की
शनासा हूँ कि,
मैं हूँ छोटीसी लहर
छोटी लहरों पर ही, पड़ते हैं पहरे और
जिन्दगी की ज़ोर - हवा हैं कायम..
पर मेरी फसाने की, मनमानी
अब भी बाकी है
©पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
वो क़हक़हा जो ठिठकी है दरख्तों पर,उनके
ReplyDeleteखिलने की अब बारी है
और
पर मेरी फसाने की, मनमानी
अब भी बाकी है..
बहुत उम्दा! और बेनजीर नस्ल के ज़ज्बात!
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteकभी हमको भी यकीन था..,पर कभी-कभी
ReplyDeleteजिंदगी न जाने क्यूँ पेश आती है
अजनबियों की तरह
इन आँखों में बसे ख्वाबों के, मंजर
अभी बाकी हैं
पीछे रह गयी तमाम हसरतों का, अन्जाम
अभी बाकी है
वो क़हक़हा जो ठिठका है दरख्तों पर,उसके
खिलने की अब बारी है
जुस्तजू है, सब कुछ में से कुछ के पाने की
शनासा हूँ कि,
छोटी लहरों पर ही, पड़ते हैं पहरे और
जिन्दगी की ज़ोर - हवा है कायम..
पर मेरे फसाने की, मनमानी
अब भी बाकी है..
मात्रा की कुछ कमी खटक रही थी, एक बार अब पढ़कर देखिये
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीया, रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी एवं सुझाव हेतु आभारी हूँ.
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर टिप्पणी हेतु आभारी हूँ.
Deleteसुंदर रचना पम्मी जी ।
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteकभी हमको भी यकीन था..,पर कभी-कभी
ReplyDeleteजिंदगी न जाने क्यूँ पेश आती है
अजनबियों की तरह
इन आँखों में बसी ख्वाबों के, मंजर
अभी बाकी है
पीछे रह गए तमाम हसरतों के, अन्जाम
अभी बाकी है
बहुत ही खूबसूरत एहसास।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीया, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteबहुत सुंदर रचना आपकी पम्मी जी👌👌
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आदरणीया, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 18 जुलाई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी,धन्यवाद.
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ReplyDeleteछोटी लहरों पर ही, पड़ते हैं पहरे और
ReplyDeleteजिन्दगी की ज़ोर - हवा हैं कायम..
पर मेरी फसाने की, मनमानी
अब भी बाकी है
वाह ! ,बेजोड़ पंक्तियाँ ,सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार।"एकलव्य"
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteबहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteलाजवाब रचना.पम्मी जी!
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीया, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteआदरणीय पम्मी जी आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ -- बहुत अच्छा लग रहा है आपकी रचना अच्छी लगी -----
ReplyDeleteजी, हार्दिक धन्यवाद आदरणीया,
Deleteरचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
बहुत सुन्दर मार्मिक रचना। बधाई पम्मी जी। आदरणीय अनीता जी की पहल भी अनुकरणीय है।
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteबहुत सुन्दर मार्मिक रचना। बधाई पम्मी जी। आदरणीय अनीता जी की पहल भी अनुकरणीय है।
ReplyDeleteठिठके हुए कह्कानों का खिलना बाकि है ...
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत सोच से उपजे भाव ... कमाल की नज़्म ...
वाह ! सचमुच ज़िंदगी कभी कभी अजनबियों की तरह पेश आती है ! बहुत ही खूबसूरत सृजन ! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय, रचना पर टिप्पणी एवं सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 13 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीया..
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