फितूर है..ये,
कई दफा सोचती हूँ.. बड़ा अच्छा होता जो 'मैं' तुम्हारे
किरदार में होती..
मैं तुम होती और मेरी जगह तुम..
और ...मैं नाहक जरा -जरा बात पे चिल्लाती, बोलती..
कुछ भी कर गुज़र जाती और..
तुम चुपचाप सुन लेते..
गिरा कर कुछ खारे मोती.
सफ्हों में खुद को तलाशते,
मैं..चुपके से देखती..
अनदेखी कर
तुम क्या कर रहे हो..
.
शिलाओं के माफिक बन
सबको समझती रहती..
जी,.. ये फितूर ही तो है..
जो सोची.. सोच सोचकर फिर सोची,
क्या?तुम म़े भी वो हुनर होगा..
जिससे खामोश लफ्ज़ों को पढा करते है....
लो..ये सोच फिर चली...
बेजा़र सी पांव पटक पटक कर..
और मैं!..
आराम कुर्सी पर
फितूर सोच,
नींद से बोझिल पलकें...
जो खुली 'संजू' की आवाज़ ..
"बीसन जूता मरबै और एक गिनबै"
(संजू गृह सहायिका अपनी बच्ची को धमकाने
के लिए अक्सर बोल जाती)
मुस्कराहटों को लबों पर लाकर बोली
हाँ..जी फितूर है..
बाम पर चाँदनी ने भी दस्तक दी है..
'वो' भी दफ्तर से आने वाले है '
मुझे भी अपनी पाक कला को आज़माना है...
ये फितूर भी न ...कहाँ से कहाँ तक ले जाती...
पम्मी
(काल्पनिक उड़ान .)