Mar 24, 2017

इक मुखौटा



सोचती हूँ खूबसूरत कहूँ या कुछ और

हर शख्स मिला

चेहरे पर चेहरा लगाए.
.
पर वो इंसान का चेहरा नहीं मिला

हर हँसी के पीछे

एक और हँसी

रही कसर हुई पूरी...

जब बेहरुपिए से इक मुखौटा मांग कर,

गिरती हूँ बस

इन शतरंजी चाल से

शउर नहीं कि खुद को समझाउँ

शायद इतनी समझदार भी नहीं..
                                               पम्मी


13 comments:

  1. शउर नहीं कि खुद को समझाउँ

    शायद इतनी समझदार भी नहीं......वाह!

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    1. यह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..

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  2. हर शख्स मिला

    चेहरे पर चेहरा लगाए.
    .
    पर वो इंसान का चेहरा नहीं मिला
    वाह ! बहुत खूब पंक्तियाँ

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    1. यह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..

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    1. यह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..

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  4. आज का सच तो यही है ... कई कई मुखौटे हैं इंसान के चेहरे पर ... अब तो वो भी भूल गए हैं अपना चेहरा ... अच्छा लिखा है बहुत ही ...

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    1. यह प्रतिक्रिया मिलना मेरी रचना का सम्मान है।धन्यवाद..

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  5. जब बेहरुपिए से इक मुखौटा मांग कर,

    गिरती हूँ बस

    इन शतरंजी चाल से

    शउर नहीं कि खुद को समझाउँ

    शायद इतनी समझदार भी नहीं..
    बहुत ही सुन्दर रचना.....
    मुखौटा लगाए इंसान को पहचानना मुश्किल ही है

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    1. रचना पढने व उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद,
      सादर आभार.

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  6. बहुत प्रभावपूर्ण रचना......
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपके विचारों का इन्तज़ार.....

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    1. रचना पढने व उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद,
      सादर आभार.

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  7. मुखौटे बच्चों को अधिक प्रिय होते हैं। बाल मन दूसरों को खेल -खेल में चकमा देकर प्रसन्न होता है लेकिन जब हम ज़िन्दगी की भीड़ में मुखौटों का सामना करते हैं तो मन विचलित होकर भ्रम और सच्चाई पर मनन करता है और मुखौटे के पीछे छुपी असलियत को जानकर हिक़ारत भरी नज़र से देखता है।
    बहुत बेहतरीन भावाभियक्ति ,बधाई पम्मी जी। आपकी नवीनतम रचना का इंतज़ार है।

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