दिनांक ः 10/8/20
विषयः चित्राधारित
विधाः छंद मुक्त
शीर्षक ः निर्धनता
अब तो समझों.. है न..
एक अभिशाप सी ये निर्धनता
पथिक मौन हो गुजर रहा
कहीं छुप रही ये मानवता?
आँखों की सूनापन देखों
कितनी बातें बोल रही,
रखकर सूखे होठों पर सवाली
सबकी थाली झांक रही
अब तो समझों.. हैं न..
एक अभिशाप सी ये निर्धनता
देख कर तेरी दुर्दशा
नीर बहायें बड़े बड़े
दो जून की रोटी के लिए
स्वप्न दिखाये बड़ें बड़ें।
अब तो समझों..हैं न..
एक अभिशाप सी ये निर्धनता
नहीं है अन्न, वासन
ताडंव मचाते भूख चारों ओर,
मरघटी सी नीरवता में भी
जीने की ये कैसी विवशता
अब तो समझों.. है..न..
एक अभिशाप सी, ये निर्धनता।
हृदयभाव भी शून्य हुआ
देखी तेरी जब तस्वीर
लाल बाल के आँखों में तैर रहा
रोटी बोटी की मरीचिका,
अब तो समझों.. है..न..
एक अभिशाप सी, ये निर्धनता।
व्यथा भरी विरह वेदना से
आश की चादर बुन रही,
अश्रुपूरित दृगों से
जीवन की जिजीविषा गुन रही
अब तो समझों.. है न..
एक अभिशाप सी ये निर्धनता।
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍