विधाः ग़ज़ल
26/8/20
3:30pm
जिंन्दगी तेरे सवालों से परेशाँ हूँ अभी
इन अधूरी सी लकीरों से पशेमाँ हूँ अभी,
जानती हूँ शर्त होती हैं रवानी के लिए
आज़माने के बहानों से खामोशाँ हूँ अभी,
कब कहाँ से ये सफ़र माँगी हुई इक स’ज़ा निकली
दाव पेंचों के उलझे धागों से हिरासाँ हूँ अभी,
हादसों के फ़लसफ़े केवल हमीं तक तो नहीं
आज़माने के हुनर से, हाँ.. निगहबाँ हूँ अभी,
मूझसे रूठा हुआ है आसमाँ.. मेरा ज़मीं
आस की शम्मा जलाकर अब फ़िरोजाँ हूँ अभी।
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍️
(पशेमाँ ः लज्जित, खामोशाँ ः silence,हिरासाँ ःharassed,फ़िरोजाँ ःbright, निगहबाँ ः रखवाली gurd)
( 2122 2122 2122 212)
लाज़बाब गज़ल👌👌👌
ReplyDeleteशुभेच्छा सम्पन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार😊
Deleteलाज़वाब! सरहाना से परे। शुक्रिया, आभार और बधाई!!
ReplyDeleteशुभेच्छा सम्पन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार😊
Deleteमूझसे रूठा हुआ है आसमाँ.. मेरा ज़मीं
ReplyDeleteआस की शम्मा जलाकर अब फ़िरोजाँ हूँ अभी।
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब।
शुभेच्छा सम्पन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार😊
Deleteबहुत ख़ूब ... अलग सी महक लिए पकवान शेर ...
ReplyDeleteअच्छा प्रयास है ग़ज़ल कहने का ...
जी, धन्यवाद
Deleteजानती हूँ शर्त होती हैं रवानी के लिए
ReplyDeleteआज़माने के बहानों से खामोशाँ हूँ अभी...
बहुत सुंदर कहन !!!
बधाई ‘तृप्ति’ जी !
शुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया के साथ ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए आभार🙏
Deleteशुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया के साथ ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए आभार🙏
Deleteमुझसे रूठा हुआ है आसमाँ.. मेरी ज़मीं
ReplyDeleteआस की शम्मा जलाकर अब फ़िरोजाँ हूँ अभी।
बहुत बढ़िया... 👌👌👌
शुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया के साथ ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए आभार आ०🙏
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 17 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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