एक मुट्ठी धूप बिखर रही मुझ में..
“वह कैसे ?”
हजारों हजारों शब्दों की मोतिया और उन मोतियों से बने शब्द- हारों को हथेलियों में लिए बैठीं हूँ।
“ कहो तो नाम बता दूँ...यें शब्द- हार है, ‘ ये दोहे गूँजते से ‘ और ‘ये कुंडलियाँँ बोलती है “
“अच्छा... तो इसलिए तुम मुस्कुरा रही हो”
“ हाँ, नहीं तो उमस भरे दिन में तुम तो... खैर छोड़ो... बेकार में कुछ बोल दूँ.. तो बिता भर का चेहरा लटका लोगी।“
“अब कुछ stress booster ले लो..मतलब लिख लो, क्योंकि तुम लिखती कम हो पढ़तीं, मनन ज्यादा करती हो..”
“ हाँ.. हाँ..अच्छा जी ”
"अब तुम जाओ..वो देखो, वो काले बादलों का एक टूकड़ा.. जो हमारें झरोखों से, कमरे में आने को आतुर है..जाओ अंजुली में भर लो और कुछ नमी, सोंधी खूशबू, शीतलता को जाकर महसूस करोंं.. और मैं.. अब मैं, यही बिखरती हूँ सफ़हे पर हर्फों संग”
छंदबद्ध रचनाओं के साझा संग्रह के संग मन मानों, मलयज की पूरी झोली भर लाई है। हम सभी सर्जक बने , शब्द निरूपण के नई गाथा रचनें के लिए। बहुत कम शब्दों में समाज के विभिन्न पहलुओं को विशेष छंदों में पिरोना बहुत हीं दुरुह कार्य था,पर आदरणीय संजय कौशिक ‘विज्ञात’ जी के नेतृत्व में हम जैसे कई अतुकांत रचनाकार छंद विद्या के दोहा, रोला और कुंडलियाँ के लेखन प्रारूप से अवगत हुए और अपनी-अपनी कलमों को धार देने लगे। इन्होंने कुशलतापूर्वक अपने आचार्यतत्व का निर्वहन किया है। हाशिए पर पड़ती जा रही कुछ विधा को पंख देने का प्रयास आज सार्थक बना है। इन दोनों पुस्तकों को डूब कर लिखा गया है। यह पुस्तक शिल्प, कथ्य, बिम्ब और भावों का सटीक प्रयोग है।
जैसे.. काज करें कितना सुता, ठीक नहीं ससुराल।
लगी रहे माँ फोन पे, सारा दिन ये हाल।।
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फेल प्रबंधन हो गया, देश हुआ बेहाल।
प्रकृति आपदा ढा रही बनकर सबका काल।।
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वृद्धाओं को अब कहें, अज्ञानी अज्ञान।
युवा समझ खुद को रहे, खुद सच से अनजान।।
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सबके साथ न बाँटिये, अपने मन की पीर।
भले अधिक हो सह चुके, सहो बनो गंभीर।।
पूरे भारत के रचनाकारों का साझा संग्रह है, जिन्होंने आधुनिक नीतियों का प्रतिपादन करते हुए समाज में व्याप्त समस्याओं की ओर संदेशात्मक तेवर में परिवेश को जमीन देने का प्रयास किया है।
सुलगा हुक्का बैठते, मानुष चारों ओर।
खींच रहे सब आग को,पानी करता शोर।।
दोनों पुस्तकें अपनी संस्कृति, परंपरा,परिवेश और लोक के मानस के आईनें को समाहित किये हुए हैं। समाज के साथ पारिवारिक माहौल में होने वाली घटनाओं के अनेक रूपों को नए शब्दों में डालने का प्रयास किया गया है। एक प्रमाणिक दस्तावेज के रूप में “ये दोहे गूँजते से” और “ ये कुंडलियाँ बोलतीं है “पुस्तक अपना स्थान बना रही है। क्योंकि गहरी संवेदना और दरकते मूल्यों के प्रति आशंकाओं को भी निहित किया गया है। सभी रचनाकारों के लेखन में गंभीरता, सूक्ष्मता और यथार्थपरकता दृष्टिगोचर होता है।
एक नज़र समसामयिक विषय पर आधारित कुंडलियों पर..
दारू की माया बड़ी, बंधन है। मजबूत।
इस के तो हर पैग में, बंधे अनेकों पूत।
बँधे अनेकों पूत,कई दिखते भरमाये।
चले गये जो साथ, लौट कर घर कब आये।
पर पीते हैं खूब, लोग दिखते बीमारू।
गिरते पिटते रैज, किंतु पीते हैं दारू।
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सिक्के के खटराग में सब डूबे उतराय।
मौन हुए जन बांचते, सूझे न अब उपाय।।
सूझे न अब उपाय, नीति की डूबी बातें।
सिंहासन की रार,छुपी सारी सौगातें।।
सोच तृप्ति हैरान, भाग्य बिल्ली के छिक्के।
सारे दिखते एक,तराजू के अस सिक्के।।
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अनुपम मुझको लिख रही, लिखे पत्र में मित्र।
खुशबू कहे गुलाब की,कभी कहें वो इत्र।।
कभी कहे इत्र, पृष्ठ की स्याही महकी।
अक्षर स्वर्णी वर्ण, कहीं मात्राएं बहकी।।
कह कौशिक कविराय, विवाद परे रहतें हम।
कहती है वो मित्र,तुम्ही हो जग में अनुपम।।
विभिन्न शब्द अलंकरण से सुसज्जित विसंगतियों, विद्रूपताओं, नकारात्मक, विडंबनाओं पर रचनाएँ तीखा प्रहार करती है। सामाजिक कुरीतियों पर आघात करती दर्जनों रचनाएँ हैं, जिन्हें आप पढ़कर आनंदित हो सकते हैं।शब्द शिल्प सहज, स्वाभाविक और संप्रेषणणिय है । दोनों पुस्तक सराहनीय प्रयास के साथ संग्रहणीय योग्य पुस्तकें हैं।जिसका पूरा श्रेय संपादकीय मंडल को जाता है।
“ सुनो... बादल समेट ली हूँ.. आ जाऊँ क्या?”
“ हाँ.. आ जाओं”
“जरा सुनो.. तो “
“ह म् म् ..क्या है?
“ यह जो बढती उम्र है ना.. तुम पर फबती है “
‘ तुम्हारे परिपक्व जीवन का शायद स्मृति धाय साक्ष्य है, छंद बोध काव्य की बात ही कुछ और है। तुम्हारे साथ सभी रचनाकारों के लिए ‘आह’ और ‘वाह’ की दरकार है, क्योंकि सभी रचनाओं में सांद्र संवेदना की नम मिट्टी है।‘
“और.. और..”
“और क्या ?
“यें हवाएँ और यह बादल खुद तुम्हारे नाम गुनगुनाएगी.. समझी ना “
“वोहह हो..हाउ स्वीट.. मेरे मन “,’ कोशिश जरूर करूंगी।‘ सुनो..जानती हूँ तुम अब कीचन में जा रही हो पर.? एक और बात रह गई थी..
‘ अच्छा क्या? ‘
“ खामोशी से बनाते रहो, लिखते रहो, सिखते रहो
कुछ सोहबते आलिमों संग बनाए रखो
क्योंकि ये बढती उम्र, कलम संग तुम पर फ़बती है।“
हाँ.. ये जो लास्ट वाला लाईन है न..वो एक दम 👌
पुस्तकें व्यापकता और विविधताओं को समाहित कर रही है, सभी पाठकों को इसे एक बार जरूर पढना चाहिए।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
दिल्ली
22/07/20
12:30 PM..✍
1.ये कुण्डलियाँ बोलती हैं (साझा संग्रह)
प्रथम संस्करण:2020
रवीना प्रकाशन
दिल्ली- 110094
पृष्ठ संख्या- 154
मूल्य: Rs.350/
2.ये दोहे गूँजते से...
(साझा दोहे संग्रह)
प्रथम संस्करण :2020
रवीना प्रकाशन
दिल्ली- 110094
पृष्ठ संख्या- 300
मूल्य : Rs.395/
बहुत सुंदर 👌👌👌👌
ReplyDeleteढेर सारी बधाई पम्मी जी 💐💐💐
शुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार।
Deleteहार्दिक बधाई!!!!
ReplyDeleteशुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु धन्यवाद।
Deleteहार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं पम्मी जी!
ReplyDeleteशुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार।
Deleteबहुत बहुत बधाई पम्मी जी ... कमाल के दोहे और कुंडलियाँ साझा की हैं आपने ... संग्रित हो रही हैं इतिहास में ये तो बहुत ही अच्छी बात है ...
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया
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