साहित्यिक पत्रिका स्पंदन में प्रकाशित आलेख..
जानते सब है मानते कितने हैं..
समय के साथ हमारे विचारधाराएं भी बदल रही है, तो कुछ बदलने को आतूर है, तमाम सोच जो सामाजिक, राजनीतिक ,पारिवारिक से संबंध रखती है,
धीरे – धीरे बदल रही हैं , क्योंकि विचारों के साथ हालातों में भी बदलाव आ रहा है। देशभर में कई चर्चाएं , विचारों के संदर्भ में गतिशीलता प्रदान कर नई सोच की ओर बढी जा रही है। इसी संदर्भ में स्त्रियों और दलितों की चर्चा भी सर्वोपरि है। जिसके संदर्भ में जानते सब है पर मानते कहँ है। ये तबका समाज का अभिन्न अंग होने के बावजूद सदा से ही समाज के साथ अपने परिवार में भी स्थान के लिए संघर्षरत रहा है।
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको - अदम गोंडवी जी की रचना हमारे चक्षुओं को खोल एक विचार को उद्वेलित करती है..कि
“आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी..”
यही कमोबेश हाल स्त्रियों को है ,आज के आधुनिक दौर में भी स्त्रियों को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसकी वह हकदार है। दलित और स्त्रियों के ऊपर हो रहें अत्याचारों को पर भी ध्यान आकर्षित किया गया है। समाज में ब्राह्मण, शूद्र और पुरुष ,स्त्री के बीच ऊँच नीच का आपसी मतभेद तो राम सीता के समय से ही चला आ रहा है, परेशानी इस बात से कि आज के वर्तमान युग में भी इसे अभी बढ़ावा मिल रहा है। तमाम नए- नए कानूनों के बनने पर भी इस तरह के हादसों में कोई कमी नहीं आ रही है। रोज ही हम समाचार पत्र के माध्यम से नए-नए घटनाओं से वाकिफ होते हैं, आज फलना जगह सवर्णों ने दलितों को मारा पीटा तो दलितों ने सवर्णों को आग लगाया, इसी तरह लड़कियों को भी कहीं भी पकड़ कर उनके साथ व्याभिचार कर नीत आजीवन पीड़ा का अंजाम दे रहे हैं। तमाम सख्त कानून होने के बावजूद इस तरह के अपराध थमने का नाम नहीं ले रहा। जो समाज में बुराइयों को फैलाकर समाज को खोखला करने का काम कर रहा है।
दलित ,महिलाओं को बाहर से लेकर घर की चाहरदीवारी तक हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.। प्रकृति ने लोगों के बीच अंतर नहीं किया तो ,फिर यह किन लोगों के सोच का प्रतिफल है । मानव सभ्यता का विकास होने, धर्म का परिचय बढ़ाने, मातृ सत्तात्मक समाज के पुरुष सत्तात्मक होने के साथ-साथ महिलाओं पर जुल्म की कहानियां भी बढ़ती जा रही है। भले ही औरतों ने वैश्विक स्तर पर अपनी बुलंदियों को झंडे गाड़े हैं मगर पक्षपात हमेशा की तरह ही बदस्तूर जारी है। हर जगह परेशानियों आ रही है। कनाडा के युवा प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक लेख के जरिए व्यक्त किए जिसमें कुछ ऐसे तथ्य लिखे जो आज के दौर की महिलाओं के लिए सटीक और अनुकरणीय है उन्होंने लिखा , यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि अब भी समाज में गैर बराबरी और लिंग के आधार पर भेदभाव मौजूद है यह मेरे लिए पागल करने जैसा है कि बेहद होशियार और दूसरों के लिए हमदर्दी रखने वाली मेरी बेटी एक ऐसी दुनिया में बड़ी होगी यहां हर खूबी होने के बावजूद कुछ लोग उस बात तो उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लेंगे उसे केवल इसलिए नाकार देंगे क्योंकि वह लड़की है सबसे बड़ी अच्छी चीज जो हमें हमारी बेटी के लिए कर सकते हैं वह है उसे यह सिखाना कि वह जो है जैसी है वैसी ही बेस्ट है उसके पास कुछ खास करने की क्षमता है जिसे कोई उससे छीन नहीं सकता बेटी की परवरिश क्यों लेकर मेरा खास नजरिया है मैं चाहूंगा कि मेरे बेटे उस खास तरह की मर्दानगी दिखाने के दबाव में ना आए जो हमारे आस पास के पुरुषों और दूसरे लोगों के लिए बहुत घातक रहा है मैं चाहता हूं कि वह जैसे हैं खुद को लेकर सहज हो जाए और बताओ नारीवादी बड़े हो यह बहुत जरूरी है कि हम अपने बच्चों को नारीवाद के सही माने बता सके मुझे उम्मीद है लोग सिर्फ अपनी बेटियों को ही नहीं सिखाएंगे बल्कि बेटे को भी समझाए आज के दौर में दोनों जनों के बीच बराबरी क्यों जरूरी है कोई भी रिश्ता यह समाज के उत्थान पवित्रता तभी कायम रह सकती है जब हम एक दूसरे को सम्मान करें एक दूसरे के वजूद को मानदेय इसके लिए समाज को भी कुछ कदम उठाने चाहिए सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था में हम बच्चों को खासतौर पर लड़कों को समानता के बारे में बताएं जो निश्चित रूप से एक बेहतर समाज बनाने में बेहतर कदम होगा..
धर्म और जाति के साथ समाजिक व्यवस्थाओं का दबाब भी बना हुआ है। पुराने हालातों मजबूरियाँ को छोड़ समानता, सम्भावाना की तलाश आवश्यक हो गई है।आगें भी चर्चाएँ होती रहेगीं क्योकि ये वर्ग विशेष है। खण्डों में विभक्त हो संघर्षो के साथ अपने अस्तित्व बनाएँ रखने के अंतरंग दस्तावेज है। समय के साथ अधिकार की बात उठने लगी है। और हम जानते सब है पर.. मानते कितने हैं ?
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..
(दिल्ली)
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