जी, नमस्कार..
हमने भी गुस्ताखी कर डाली.. प्रदत्त बहर में लिखने की..🙏🏻🙂
2122 2122 212
मोड़ दी हमने मोहब्बत की सदा
अब पत्थरों से सखावत भूल गये,
आँख है भरी,बेकसों सी हैं अदा
बेदिली की अब इबादत भूल गये,
होश खो कर भी असर जाता नहीं
अब जमाने की हिफाजत भूल गये,
आरजूओं में कसीदा है अभी
पर सवालों से मसाफ़त भूल गये,
आज भी उम्मीद टूटती ही नहीं
अब धनक रंगों से इजाज़त भूल गये।
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍
लाजवाब!!!
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब गजल।
व्वाहहहहह....
ReplyDeleteबेहतरीन...
सादर..
शुक्रिया.
Deleteवाह !लाजवाब दी 👌
ReplyDeleteजी, धन्यवाद🙂
Deleteवाह दी लाज़वाब।
ReplyDeleteआभार
Deleteजी, धन्यवाद।
ReplyDeleteअप्रतिम रचना
ReplyDeleteआभार।
Deleteबहुत ही अच्छे शेर कहे हैं आपने पम्मी जी पर शायद दूसरी पंक्ति हर शेर की बहर से बाहर लग रही हैं ... कृपया देखें ... आशा है आप मेरे सुझाव को अन्यथा नहीं लेंगे ... (ये बात मैं आपको गज़ल की बहर अनुसार कह रहा हूँ ... जो भी अल्प ज्ञान है मुझे) ...
ReplyDeleteजी,..मुझे भी लग रहा है..(कुछ और जम ही नहीं रहा था .सो छोड़ दी 😔
Deleteसमीक्षा के लिए आभार, आपके सुझावों का स्वागत है आदरणीय।
अल्पज्ञानी तो मैं हूँ, आप की रचनाएं पढ़ीं हूँ, सर आप तो सर्वज्ञानी है।
दिगंबर जी सहीह कह रहे हैं
Deletepummi जी नमस्कार .अच्छा प्रयास .मफ़हूम अच्छे हैं .बह्र कई जगह भटक गयी है .........
ReplyDeleteसमीक्षा के लिए आभार.. दुरूस्त करने की कोशिश करते हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद
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