अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
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अनकहे का रिवाज..
जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...
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पापा .. यूँ तो जहां में फ़रिश्तों की फ़ेहरिस्त है बड़ी , आपकी सरपरस्ती में संवर कर ही ख्वाहिशों को जमीं देती रही मग...
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हर तरह से खैरियत है ,होनी भी चाहिए, गर, जेठ की दोपहरी में कुछ खास मिल जायें, तो फिर क्या बात है..!! पर.... कहॉं आसान होता है, शब्दों में ब...
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ख्वाबों की जमीन तलाशती रही अर्श पे दर्ज एहकाम की त लाश में कितनी रातें तमाम हुई इंतजार, इजहार, गुलाब, ख्वाब, वफा, नशा उसे पा...
खूबसूरत शब्द |shbdankn ॥
ReplyDeleteजीवन फिर भी सँभालते रहना ही है ...
ReplyDeleteअच्छी रचना ...
शुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार।
Deleteवाह ! क्या बात है ! लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteशुभेच्छा संपन्न प्रतिक्रिया हेतु आभार।
Deleteसंभलते रहे जीने की चाहत में
ReplyDeleteपर कई किरदार सिसक रहे..... लाज़वाब।
आभार।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2020) को 'बिगड़ गया अनुपात' (चर्चा अंक 3726) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बढ़िया
ReplyDeleteवाह! पम्मी दी बेहतरीन सृजन.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति पम्मी जी, कि...
ReplyDeleteसंभलते रहे जीने की चाहत में
पर कई किरदार सिसक रहे...गजब