अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
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अनकहे का रिवाज..
जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...
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पापा .. यूँ तो जहां में फ़रिश्तों की फ़ेहरिस्त है बड़ी , आपकी सरपरस्ती में संवर कर ही ख्वाहिशों को जमीं देती रही मग...
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हर तरह से खैरियत है ,होनी भी चाहिए, गर, जेठ की दोपहरी में कुछ खास मिल जायें, तो फिर क्या बात है..!! पर.... कहॉं आसान होता है, शब्दों में ब...
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ख्वाबों की जमीन तलाशती रही अर्श पे दर्ज एहकाम की त लाश में कितनी रातें तमाम हुई इंतजार, इजहार, गुलाब, ख्वाब, वफा, नशा उसे पा...
रिश्तो को पकड़ने और जकड़ने की जद्दोज़हद शुरु हो जाती ..... पुन : शून्य से आरम्भ आहिस्ता आहिस्ता शाम की और कदम बढ़ती जाती ...अपनी जिंदगी समटने ,क़रीने से सजाने में।....लधु किन्तु भावपूर्ण लेखन , बधाई |
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभार,sir
ReplyDeleteदर्द और खुशी का समन्वय हि हमारे रिश्ते की पहचान ...
ReplyDelete...रिश्तों को बहुत सटीक रूप से परिभाषित किया है...बहुत सुन्दर और भावपूर्ण..
बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार , sir
ReplyDeleteबेहद शानदार लेख। पम्मी जी, ब्लाग पर कमेंट करते वक्त नाम ईमेल के साथ अपना यूआरएल http://pammisingh.blogspot.in/ वेबसाइट वाले कॉलम में भर दिया कीजिए। इससे मैं सीधे आपके ब्लाग तक आसानी पहुंच सकूंगां। अभी तलाश करके पहुंचना पड़ता है।
ReplyDeleteजी,जरूर
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतू घन्यवाद