समाज के विभिन्न बुद्धिजीवी वर्गों के विचारों को संलग्न करती पत्रिका ' भाषा सहोदरी ' में शामिल मेरी आलेख..
विषय : भाषा और राजनीति
भाषा और राजनीति के आरंभिक विकास की रेखाएं, शून्य से प्रारंभ हो एक विशेष लक्ष्य को प्राप्त करती है। भाषा के साथ राजनीति का ना केवल वर्तमान बल्कि भविष्यत् भी विराट है। इन दोनों के गर्भ में निहित भवितव्यताएँ देश के साथ संस्कृति में सकल, सुलभ, संचार भर के रंगमंच पर एक अद्भुत अभिनय करती है।
दार्शनिक विद् अरिस्टोटल “मनुष्य प्रकृति से एक राजनीतिक प्राणी है।“
भाषा:- ब्लॉक एवं ट्रेगर(Bloch and Trager)-“भाषा मनुष्य की वागेन्द्रियों से उत्पन्न यादृच्छिक एवं रुढ़ि ध्वनि प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा एक भाषा समुदाय के सदस्य परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।“
मनुष्य के सृजन कर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है भाषा। भाषा मात्र संवाद का माध्यम बन प्रीतिमय समाज के साथ विवेकपूर्ण भाव को भी प्रदर्शित करता है।
भाषा स्वंय में एक सामाजिक प्रक्रिया है, अत: उसकी प्राथमिकता के मूल में ही सामाजिक तत्व निहित रहते है । मनुष्य के यथार्थ आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु सशक्त माध्यम के साथ समाज को सुसभ्य, सुगम, सहज और सुप्राप्य बनाने में राजनीतिक मुख्य कारक है, तो वहीं भाषा संचार का माध्यम।
भाषा जीती अर्थात सब जीत लिया। क्योंकि समाज में मनुष्य की भाषा जातिय जीवन के साथ संस्कृति की सर्व प्रधान रक्षिका है। इसका मौजूदा वजूद शील का दर्पण है। भाषा क्षेत्र प्रदेश विशेष की विशिष्ट परंपरा संस्कृति के साथ विचारों के प्रभाव की पहचान है। भाषा राजनीति एक सिक्के के दो पहलू हैं।
अरिस्टोटल के तर्क को दृष्टिगत किया जाए तो इसका अभिप्राय मनुष्य स्वभावत: एक राजनीतिक प्राणी है, जिसकी बृत्ति संगठित हो समाज के साथ स्वयं को अनुकूल सरंचना में ढालना, वही राजनीति के साथ नीति,रीति, भीती के साथ प्रभावी ढंग से सामंजस्य बना अपना वर्चस्व निभाना है। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के साथ समाज में अपने क्रियाकलापों रचनात्मक कार्य को संपादित करता रहता, वह शुद्ध तृप्ति, शिक्षा ,दीक्षा आदि सभी को समाज से ही प्राप्त करता है ।साथ ही निरंतर नए-नए विचारों को सुगम में योग्य बनाने हेतु प्रयत्नशील रहता है। राजनीति व्यवहार या सिद्धांत मुखयतः समाजिक तथ्यों ,मूल्यों से ही उत्पन्न होता है। राजनीति में भाषा का वर्चस्व अनायास न होकर पारंपरिक रूप से हुआ है। दोनों के गह समबन्ध इस बिन्दु से है “मनुष्य मात्र सामाजिक प्राणी न होकर राजनीतिक क्रियाओं के साथ -साथ अराजनीतिक क्रियाओं का भी व्यापक क्षेत्र है।राजनीतिक तब तक नहीं समझा जा सकता जबतक व्यक्ति की अराजनीतिक क्रियाओं से जोड़कर न देखा जाए.राजनीति के तीन निर्धारक तत्व है। संख्यात्मक, सरंचनात्मक और संस्कृति। जिसके गर्भ में भाषा ,,भाषाविज्ञान अराजनैतिक तौर पर विराजमान है। भाषा माध्यम बन व्यवहारिक राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाता है। जिसके अंर्तगत एक केन्द्रीय सत्ता का निर्माण और समूहों का विकास है। भाषा माध्यम बन व्यक्तियों और समूहों के साथ राज्य की प्रक्रिया में अधिक से अधिक सहभागिता में वृद्धि करता है।
जिसे भाषा द्वारा अभिव्यक्त कर समाज में नियोजित कर परिस्थितियों के अनुकूल बनाता है। राजनीति का संबंध समष्टिगत हित चिंतन में समाहित होता है। राजनीति समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याओं के प्रति प्रगतिशील प्रभावी दृष्टिकोण प्रदान करता है। जिसे भाषा रूपी पुल से नदी के दूसरे छोर की ओर जाना होता है। दोनों का संबंध व्यापक परिप्रेक्ष्य को समेटे हुए हैं।
राजनीतिक प्राय: सामाजिकता के साथ संस्कृति के विकास के अनुकूल विचार संग मानवीय आवश्यकताओं से जुड़ी रहती है । भाषा मात्र व्यक्तिगत अभिव्यक्ति ही नहीं बल्कि इसका आयाम वृहद है। जो तर्क तालुकात् को जन्म दे, विशेष सोच-विचार की ओर ले जाती है, जिसका प्रसार व्यापक सामाजिक संस्कृतिक अनुसंधान के रूप में होता है। राजनीति अपने राजनीति और सामाजिक अपेक्षाओं के साथ रिश्तो को व्यवस्थित करने के लिए भाषा का प्रयोग करते हैं। लोगों द्वारा व्यक्त विचार धाराओं को जानने समझने के प्रयोजन में खुद को भाषा में ले जाते हैं, जो एक विचार का रिश्ता बना, सामाजिक संबंधों की व्याख्या करता है।
यह राजनीतिक प्रेरणा और अन्य विकल्पों की विधियों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ अन्य आयामों पर भी जोर डालती है। राजनीतिक लोकतंत्र में इसकी महत्ता पूरजोर से विधमान है।
सुसुर Saussur "Language is a system of signs that expresses ideas".
भाषा ना केवल समाज में निहित व्यक्ति बल्कि पूरे समूह, विशेष समूह के भावों का प्रतिनिधित्व करती है । इसका प्रभाव समालोचनात्मक के साथ संयम एवं धैर्य के परिचय को सुदृढ़ करती है। वही राजनीति यथोचित प्रभाव द्वारा व्यवस्थाओं को व्यवस्थित कर जटिलताओं को दूर करता है। प्रत्येक गतिविधियों का समुचित प्रतिबंध देश के मौजूदा राजनीतिक व्यवस्थाओं से होता है। जिसमें तत्कालीन विचारों, भावनाओं, प्रयासों के साथ उपलब्धियों का समावेश रहता है। समस्त मानव जाति का विकास सार्वभौमिक आदान-प्रदान और सक्रियता से मुख्य धारा के साथ चलने में भाषा की व्यापकता और सापेक्षता को राजनीति को राजनीति के साथ साथ दर्शन और इतिहास से भी जोड़ना होगा। राजनीतिक सचेत व लक्ष्योन्मुख क्रियाकलाप है। अत: समयानुरूप सामाजिक चेतना को पहचानना या भाषाई नब्ज पकड़ना एक विशेष रूप है। राजनीतिक का लक्ष्य अन्तःस्थिति, अंववर्स्तु को व्यापक तौर पर अंचल प्रदेश, क्षेत्रों में जनता के समक्ष ग्रह योग्य बना, जनता समाज विशेष का सक्रिय समर्थन प्राप्त करना होता है ।इस स्तर पर भाषा सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्य को संपन्न करने के लिए आवाम को लामबंद कर एक दिशा-निर्देश में महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक संबंध शासन पद्धति की पृष्ठभूमि है तो भाषा का संबंध जीवन विचारों के संचार अभिव्यक्ति की पद्धति से जुड़ा है। किसी भी देश की समृद्धि और राष्ट्र का विकास भाषा के आधार पर ही हो सकता है। सर्वविदित है कि विकसित देश भी निज भाषियों के आधार पर राजनीति के साथ सामाजिक क्षेत्र में भी अग्रसर हो रहे है।
भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन मुख्य तीन विधियों से किया जाता है -समकालीन ,काल क्रमिक और तुलनात्मक । जहाँ समकालीन भाषा अध्ययन में एक विशेष काल बिंदु पर भाषा की स्थिति पर विचार किया जाता है, तो वहीं काल क्रमिक भाषा अध्ययन में विभिन्न काल बिंदुओं पर और तुलनात्मक अध्ययन में दोनों प्रणालियों का मूल विराजमान रहता है। इस परिदृश्य से राजनीतिक विचारधारा भाषा में अन्नोयश्रीत संबंध स्थापित होता है। भाषा और राजनीति के बीच अंत: क्रिया में विभिन्न क्षेत्रों का विश्लेषणात्मक अध्ययन होता है। संचार और मीडिया अनुसंधान, भाषा विज्ञान, व्याख्या अध्ययन ,राजनीतिक विज्ञान, राजनीति समाजशास्त्र या राजनीतिक मनोविज्ञान सहित, कई सामाजिक विज्ञान के विषयों को रेखांकित करता है। राजनीति और भाषा के अध्ययन व्यापक संचार के साथ प्रक्रियाओं की गतिशीलता है। भाषा का कारोबार सिर्फ साहित्य तक ही सीमित नहीं होता समस्त कानून-व्यवस्था अर्थ नीति व्यापार प्रमाणिक नियामक संस्कृतिक सामाजिक मान्यता या परंपरा से विकसित नैतिक मूल्य बोध अतंत:भाषा के लिबास में ही उपलब्ध होते है।
डनबर (1 99 6) का मानना है कि भाषा दुश्मनों और सहयोगियों और संभावित सहयोगियों को बनाने के सहयोगियों को अलग करने के अति-कुशल साधनों के रूप में विकसित हुई है। डेसैलस (2000) अपने मूल को एक महत्वपूर्ण आकार के 'गठबंधन' बनाने की आवश्यकता में रेखांकित करता है, जो सामाजिक और राजनीतिक, संगठन के प्रारंभिक रूप का प्रतिनिधित्व करता है।
मनुष्य की प्रवृत्ति वाचाल हैं जो सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण में सामाजिक संगठन को प्रभावित करता है।भाषा मात्र अभिव्यक्ति का साधन नहीं है बल्कि यह भौतिक सामाजिक व्यवहार के अंशभूत अवयव है। प्रत्येक भाषा विशेष प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक संदर्भ में अर्जित की जाती है।
भाषा का सम्बन्ध न केवल साहित्य और विचार की दुनिया से है बल्कि भारत जैसे एक बहुभाषिक राज्य में राजनीति और राष्ट्रीय एकीकरण का विषय भी है। भारत के साथ यूरोपीय देशों के इतिहास भी अनेक भाषा संग्राम के साथ उसके राजनीतिक समीकरणों से जुड़ा है। आत्मविस्मृति के इस युग में भी इससें आँखें नहीं फेरा जा सकता है।
राजनीतिक का सार सत्ता के रूपांतरण, में निहित है ,जो जन समूह के अनुरूप हो सके। सत्ता का केन्द्र नेतृत्व है ,जो जन समूह को अपने रूप में ढाल ले। राजनीति का यह द्वन्द्व महत्वपूर्ण बिंदु है। शासक वर्ग, लोगों की चेतना की भाषा को समझने के साथ विवेचना कर अनुकरणीय योग्य बना सके। अतः किसी भाषा को चुनाव उसकी लिपि के कारण नहीं होता बल्कि वह सत्ता के राजनीतिक सोच के साथ सामाजिक, आर्थिक आधार से भी जुड़ा होता है।
इस प्रकार भाषा और समाज का एक दूसरे से उनकी उत्पत्ति से ही संबंध रहा है जिसके कारण उनकी परिभाषाओं में भी एक दूसरे को स्वीकारे बिना भाषा और समाज की परिभाषाएँ पूर्ण नहीं होती।
समाज के विकास में भाषा के साथ राजनीति का स्थान महत्वपूर्ण होता है,जिसका सफ़र अभिव्यक्ति से आत्मविकास के रास्ते सर्वव्यापी रचनात्मक चेतना की ओर जाती है।
पम्मी सिंह‘तृप्ति’..