विधा- मुक्त
विषय- माँ , मातृ दिवस
जब भी घिरती हूँ...
बाकी सब जहाँ के रवायतों में सहेज रखा ..
पर.. जब भी घिरती हूँ दुविधाओं में
माँ..सच तेरी, बहुत कमी खलती है,
मुख्तलिफ राहों में तूने ही तो संभाला है
अब हवा दुखों की तब्दील होती नहीं
सर पे हथेलियों की गर्माहट महसूस करती नहीं
क्यूँ ये हालात हैं? जो मजबूर है इतना
जो ख़ाली बैठी रही,,अपनी ज़ात से,
काश ! वो लम्हा ठहर जाता..
क्यूँ जरूरी बन जाता है.. इस तरह से बिछड़ना,
कि बिछड़ें भी तो दिल में बस जातें हैं,
वो वक्त का सिकंदर मौजूद है हमारे दर्मियान..
जहाँ की रस्मों के खातिर,अपने आस्ताँ पे हैं खड़े
और दिलों में उठती हर कसक को दबाना पड़ता है,
पर कहते हैं, हथेलियों की बची ख़ुशियाँ, दुखों पर ही भारी बनता है
ये कैसा क़र्ज़..था.. दुआओं में,
दूर हूँ.. बड़ी..महफ़ूज़ हूँ,
जीते जी तो कह ना सकी
पर जब भी घिरती हूँ..मॉ
सच्ची तेरी बहुत याद आती है..।
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’
दिल्ली
माँ तो माँ है उसकी कमी और उसकी याद हमेशा रहती है ...
ReplyDeleteऔर दुविधा में, कष्ट में तो उसकी ही याद आती है ...
प्रतिक्रिया हेतु आभार।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 30 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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