स्वार्थ
'स्वार्थ ' शब्द पर परिज्ञप्ति चंद परिज्ञा
जी हाँ, स्वार्थ ऐसी प्रवृति जो हम सभी में विराजमान ..
एक संज्ञा और भाव जो सर्वथा नकारात्मकता ही संजोए हुए है।
प्रश्न है स्वार्थ है क्या ? सच तो यह है कि मात्र यह कभी खुद की भावनाओ
को परिमार्जन करना तो कभी वचन या कर्मो को रक्षा करना ही है। अन्य
भावो की तरह असमंजसता की स्थिति यहाँ भी है इसलिए पर्ितर्कण
कर संकल्पता और सवेदशीलता की पृष्ठभूमि को सुदृढ़ करना होता है।
स्वार्थ की सकारत्मकता लोगो को आपस में जोड़ रखी है। कर्त्तव्य
निर्वहन की ओर अग्रसर होती हुए उत्तम से अतिउत्तम की ओर जाती है।
बरशर्ते स्वार्थ हानिरहित हो अव्यवक्त रूप मे हमारे जीवन का आधार है।
मुख्तलिफ़ शब्द होकर भी राग -अनुराग , हर्ष - विषाद ,मोह -माया ,
गर्व पूर्ण आनन्द की उद्गम स्थल है तो कभी मर्म -वेदना का कारण।
खुद के विकास का स्रोत होकर सभी के जीवन शामिल परन्तु रहस्यवादिता
के साथ हेय दृष्टिकोण .. परन्तु पैठ महत्वपूर्ण है। अगर मात्रा निश्चित
और अनुपात में हो तो अनुभूति और अभिव्यजना दोनों निखरेगी साथ ही यथार्थ जीवन में समन्वय का कारक भी। यदाकदा प्रतिपादित कर्म
का आधार भी बनती है। विस्तृत एवम विवादस्पद शब्द और भाव निश्चित
तौर पर 'मै ' जो शामिल होकर भी आसान नहीं। अनवरत व्याख्या जारी
रहेगी और रहनी भी चाहिए।
( चित्र - गूगल के सौजन्य से }
badhiya post
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विचारणीय पोस्ट , मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteThank you, sir.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर। अच्छे लेखन के लिए बधाई।
ReplyDeleteप्रतिक्रििया हेतु आभार, सर.
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