Apr 11, 2022

गवाक्ष सी लघुकथाएं..

 













 साहित्यिक और नवीनता की तलाश में एक और कदम..."लघुकथा कलश" अप्रकाशित रचनाओं के संग अपनी विशिष्टताओं के कारण व्यापक जनमानस तक पहुंचने का माद्दा रखतीं हैं। अच्छा लगता है जब पुस्तक के हिस्से बनते हैं और बहुत अच्छा लगता है जब विशिष्ट समकालीन संदर्भ और तुर्शी के साथ जीवन,समाज के पहलूओं पर चोट करतीं लघुकथाओं के रचनात्मक कार्यों के बीच एक नाम अपना भी देखतें हैं।

अल्पसंख्यक विमर्श कुमार संभव जोशी जी द्वारा चर्चा के दौरान समाज के कई पहलुओं से दो -चार होते हैं।

विमर्श क्या है?अल्पसंख्यक शब्द का तात्पर्य गंभीर संवाद की ओर मोड़ती है।

'तथागत' नक्सलवाद पर अधारित साकारात्मक संवेदनाओं को लेकर बुनी लघुकथा बहुत बढ़ियाँ।

'चौथी आवाज' लघुकथा साहसिक, समयानुकूल  प्रशन उठा रही,'क्षमा कीजिए मंत्री जी,मैं इस देश के बहुसंख्यक वर्ग से हूँ, लेकिन समान्य नागरिक होने के नाते एक बात पूछना चाहता हूँ' मानो कह रहे बहुसंख्यक का क्या और क्यूँ कसूर?

अंत में वर्णित विभिन्न पहलुओं पर वैचारिक रूप और उनके द्वारा स्थापित किये रचनाओं का व्याख्यान  पठनीय है। लघुकथा में सही शब्द की खोज  विषय में शब्द सारणी  द्वारा शब्द, विचार, समय की व्याख्या की गई है। रचनात्मकता के विभिन्न पहलुओं पर सार्थक चर्चा के दौरान सहज ही ' दर्शन शास्त्र और लघुकथा पर ध्यान जाता है। 'मैं सोचता हूँ, अतः मैं हूँ।,'मैं महसूस करता हूँ अतः मैं हूँ','मैं पढता हूँ, अतः मैं हूँ'... अंत में ' मैं लिखता हूँ, अत:मैं हूँ।  लिखने की चाह रखने वाले व्यक्ति लिए सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।लघुकथा पर वैचारिक नियंत्रण और संतुलन की विशेषता ही प्रभावित करता है। विषय-वस्तु के

 क्रमानुसार विश्लेषणात्मक विविरण गवाक्ष है लघुकथा के लेखन, निरूपण और सृजनात्मक सरोकार  की।

 रचनाकार आ०योगराज प्रभाकर जी के साहित्यिक गतिविधियाँ के लिए नमन।

 शतशः बधाइयाँ

 पम्मी सिंह 'तृप्ति'


 

Mar 31, 2022

चाँद के ज़द...



 नस्री नज़्म अपनी सी...

चाँद के ज़द..


खुद को चाक पे रखकर आज फिर संभल रहीं

बदमिजाज सरहदें मन की आज फिर मचल रहीं,


माना अभी सहमे से इक चाँद के ज़द में हूँ

कैसे डूबे, कैसे उभरे की मद भी..खूब रहीं,


ओढ़ लेतीं हूँ खामोशी कई दफ़ा जीने की मश्क्कत में

मांगकर इजाजत मेरी,इन आइने के सवाल...खूब रहीं, 


क्या बात है कि मुक्कमल आजकल बात होती नहीं

बेरुखी सी पुरवाई , चढ़तीं धूप की तख़सीस...खूब रहीं


मसला ये नहीं थी ख़्वाबों से हम क्यूँ जाग गए

मांगी,चंद सांसों की इज़ाज़त,औ उनकी उज्र...खूब रहीं,


शिकायतें ये भी नहीं कि हमीं तक क्यूँकर गुज़रीं

पर,सलीके से ही, ज़िंदगी के खास तजुर्बे...खूब रहीं,


बिख़र जाये हम अज़ी कहाँ.. चाँद वाली ग़ज़ल में

थोड़ी नाकामियों को  सजाने के हुनर... खूब रही।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


(उज्र-एतराज, तख़सीस-विशेषता,मुख्यता, मद-नशा,ज़द-चोट,

Jan 13, 2022

टप्पे/माहिया



टप्पे/माहिया

(नवा वर्ष, ठंड,मकर संक्रांति, लौहड़ी)


जरा शॉल तो ओढ माहिया ( २)

नवा साल है जरूर

इत उत न डोल माहिया


हट जा परे सोनिये (२)

छोड़ जरा.. घड़ी दो घड़ी

नवा साल मनाना है।


तू तो उड़ती पतंगा है (२)

शोलों की है यहाँ झरी

आज तो मन मलंगा है।


आसमां की तरफ देखो ( २)

मौसमों की ताबों में

आस्ताँ  न भुलाया करों


तू बड़ा ही सयाना है २

भूलों गम घड़ी- दो -घड़ी

दो पल का जमाना है।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️




Jan 7, 2022

टप्पे/ माहिया




टप्पे/माहिया

अफ़सानों की बातें
आँखों के वादे
क्यूँ नहीं समझ पातें

तू बड़ा ही सयाना है
इत उत बातों से
तू क्यूँ हाय रिझाता है
चल...
हट जा परे सोनिये
हँस दे घड़ी दो घड़ी
दो पल का जमाना है

पीर हिया की (मुझे) दे.. दे..
हाथ बढ़ातीं हूँ
इब रोज आना जाना है

ख्वाबों में मत आना
अरदास करूँ.. रब से 
तेरे नाल  जाना है।
  पम्मी सिंह ‘तृप्ति’.✍


Jan 3, 2022

शब्द है वहीं जानी पहचानी सी ..





लीजिए 21 वी सदी के बाईसवें साल में हमारे मुस्कराने की वजह ये ही बनी..

 "शब्द है वहीं जानी पहचानी सी जरूर कुछ बात है,

शहरियत है,तर्बियत भी मानी सी जरूर कुछ बात है।"

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

GLOBAL  RESEARCH JOURNAL

(peer-reviewed  (refereed)  journal)

ग्लोबल रिसर्च कैनवास

(द्विभाषी त्रैमासिक शोध पत्रिका ) में प्रकाशित हमारी भी

शब्द-

 निधि पेज न०8-10 ...विषयक - ,'देश की स्वाधीनता का वर्तमान स्वरूप'

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Dec 10, 2021

लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,..

 लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,








इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,

क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम


दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,

क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।


लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,

क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।


चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,

क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।


यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,

क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।

पम्मी सिंह 'तृप्ति'


शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी

Oct 29, 2021

अप्रकाशित कमजोर लघुकथा

 






विश्व भाषा एकादमी(रजि),भारत की राजस्थान इकाई द्वारा लघुकथा पर अनोखा कार्य।

अनूठा श्रमसाध्य लघुकथा संग्रह। यह संग्रह न केवल विशिष्ट रूप में है बल्कि लघुकथा के शोधकार्यो में भी सिद्ध होगा।

शुभकामना संग हार्दिक आभार।

Page no 76 पर मेरी रचना।


यह संग्रह निम्न लिंक पर पढा जा सकता है।

https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html



https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html?


कैसी अहमक़ हूँ

  कहने को तो ये जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत असबाब और हम न जाने किन चीजों में उलझे रहते है. हाल चाल जानने के लिए किसी ने पू...