अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
Dec 15, 2018
Dec 5, 2018
संस्मरण
लम्हों की सौगातें..
मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी.. 24 अक्टूबर 2018 की सुरमई सुबह की आहट थी। जल्दी- जल्दी घर के सब कामों को निपटा कर 8:00 बजे तैयार थी, आज इनके के साथ ही चलूंगी ताकि कार्यक्रम के आरंभिक भाग से वंचित न रह जाउं। बिना किसी लाग लपटें ,पुछ-ताछ के वो तैयार भी हो गए। बेवजह हीं शंकित थी , कहींं दफ्तर में लेट हो जाने पर शब्द रुपी वाण न चला दे,.और मैं घायल हो मुँह पर बारह न बजा लू.. पर न..वो भी आसानी से तैयार हो गए ।
ह.. ना.. तो..पर मन के बियाबान जंगल में अक्सर ही एक साथ कई बातें उभर आतें हैंं। उसी झुरमुट के
पत्तों ,काटों,शाखों से कुछ फूलों को समेट इन पन्नों पर शिद्द्त से सजा देती हूँ। अपने वजूद के साथ शब्दों के तासीर को , इन सबके बीच तलाशती रहती।
रास्तों में आती-जाती गाड़ियां ,लोगोंं के बनते बिगड़ते चेहरे और जीने की कुछ पाने के जद्दोजहद में ,सब की कहानी अपनी जमीन के साथ तयशुदा दायरें में चलता रहता है। मैं भी अपनी कहानी का एक हिस्सा बताने जा रहे हूँ.. सहोदरी सोपान -५ की भागीदारी में एक भाग पर, पर सच कहूँँ... वैसे तो कभी झूठ नहीं बोलती😁पर बरसो लग जाते हैं , एक किरदार की मुकम्मल तस्वीर बनाने में, "पर जब घिरती हूँँ" कविता बहुत ही दिल के करीब है, क्योंकि यहाँँ तुम थी माँँ, हमारी " नीयत" की मौजूदगी के साथ जिंदगी की टकराहटोंं से पड़ने वाले घाव मात्र चुभते नश्तर और मुदावा से तकमील नहीं होती , बल्कि एक जोड़ी हाथ, नर्म फाहोंं के भी जरूरत होती है । जो शब्दों में तब्दील होकर " क्यूँ ना फिर मुस्कुरा कर निभाते रहेंं" में बिखर गई।
खुद के वजूद का अहसास कराती एक खूबसूरत संवेदनशील रचना को शब्दों में समेटने की कोशिश , "हमारी किस्सागोई न हो" इसलिए हकीकत की पनाह में आ गए ,क्योंकि पूर्णता की ओर निगाह सब की होती है , पर मेरी छोटी- छोटी अधूरी बातें छलक ही जाती है ,कभी अश्कों में, जज्बातों में, कभी रातों में ,ख्वाबों में ,रस्मों रिवाजों में, मातृत्व में, सहचरी बनने की कोशिश में, सच बोल रही हूँँ.. बहुत आगे नहीं, पीछे भी नहीं साथ चलना चाहती हूँँ।
इन शब्दों की खुलती गिरह और रिश्तों को समेटने की कोशिश को ही शब्दों में भर हल्की हो जाती हूँ।
हद हो गई दरवाजा खोल कर.." अंदर देखोंं कहाँँ क्या हो रहा है.. कितनी देर होगी?
मन के पन्नेंं, भावोंं का स्पंदन इसके के रोबीले आवाज से ठहर गई...
"अरे!वाहह.. पहुँँच भी गई.. वो भी मन के उपांतसाक्षी को वहीं छोड़ बोली.. मतलब.. तुम जाओ.. लंच बॉक्स ले लेना.. बाय!! और आगे बढ़ गई.. पर जानी पहचानी आहटों से यह क्या.. तुम गए नहीं.."
"पहले पता करो कहाँँ हो रहा है.. तुम्हारा सेमिनार ..मेट्रो से लौट जाना"
" मैं भी मूँह बना कर बोली.. शाम जब तुम ऑफिस से जाना तो मुझे भी ले लेना.. सालों बाद तो एक ही मौका मिला है तुम लाभ उठाओ.. जानती हूँँ तुम आओगे भी थोड़ा खिन्नता दिखाकर .. जनाब के आसानी से बोल तो फूट ही नहीं सकते.. वह भी आसानी से ..
मैं फोन कर दूंगींं.."
"ओके !!"
सधे कदमों से ऑडिटोरियम की ओर 'भाषा सहोदरी हिंदी " तरफ से हंसराज कालेज दिल्ली में दो दिवसीय छठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। साहित्य की दुनिया में तमाम नामी गिरामी हस्तियों के बीच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष आदरणीया मैत्रीय पुष्पा जी एवं हंसराज कॉलेज प्राचार्या डॉ रमा शर्मा जी ,पद्मश्री डा०सी. पी. ठाकुर जी ,मान्यवर जितेंद्र मणि त्रिपाठी(डी.सी.पी.) साहित्यकार के मुख्य आतिथ्य व सानिध्य में हंसराज कालेज, दिल्ली के सभागार से मानों कार्यक्रम में चार चाँँद लग गया ।
व्याख्यान में कथा ,लघु कथा के लेखन विधा के साथ साथ मौजूद विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया।
हिंदी में कार्य प्रणाली को बढ़ावा देने के साथ न्यायालय की भाषा बनाने पर विशेष जोर दिया गया जिस पर आदरणीय डॉक्टर सीपी ठाकुर राजसभा सांसद पद्मश्री अपने विचारों को व्यक्त किए।
पर इन सबों से भी ऊपर यह बात रही कि दक्षिण भारत से बहुत लोग इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए और पत्रिका के विमोचन में मुख्य भूमिका निभाई देश के हर राज्य से लोगों ने अपनी मौजूद मौजूदगी दर्ज कराई । मंच से स्वरचित काव्य पाठ की अविस्मरणीय प्रस्तुति से वो अनमोल घड़ी एक सुखद पल के साथ एक आत्मसाक्षात्कार का क्षण बना।दूसरे दिन २५ अक्टूबर२०१८ साझा संकलन (लघुकथा, कविता) पुस्तक का लोकार्पण मुख्य अतिथि द्वारा किया गया। जिसमें मेरी प्रतिभागिता सहोदरी सोपान ५ में पृष्ठ संख्या 165-168 में ,सम्मिलित है। इस पुस्तक के माध्यम से देश विदेश के विभिन्न रचनाकारों को पन्नों में सहेजना बराबर है मानो जमीन पर तारों की झिलमिलाहट पन्नों में उतर आया है। एक सहज,शालीन आवरण के साथ पन्नों को पलटते ही दृष्टि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संदेश पर ठहर जाती जिनका हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी शब्दकोशीय को दृष्टिगत कर रचनाकारों की पृष्ठ बनाया गया है। हर प्रांत ,पृष्ठभूमि से जुड़े पाठकों के लिए सहोदरी सोपान पाठकों के लिए सहस्रों धाराओं के समान फूटने,खिलने के साथ एक राह बनाती पुस्तक है।
सच है...सृजनशीलता के तले एक शांत नदी बहती रहती..जो इस पुस्तक के माध्यम से पृष्ठों के सतहों पर बही,जहाँ प्यास बुझती नहीं बल्कि शदीद से बढ़ जाती है।
कई अंजान चेहरों के बीच में एक डोर था ,और वो था शब्दों का डोर। किताबों के साथ हाथों में आते ही सबके हाथों के साथ नज़रें भी रक्स़ करने लगती और एक ग्रुप फोटों के साथ कार्यक्रम सहोदरी हिंदी भाषा आदरणीय जयकांत मिश्रा जी के तत्वावधान में समापन हुआ। यूँ तो कार्यक्रम काफी सफल रहा पर बेहतर बनाने के लिए कुछ सुझावों के साथ अगला कार्यक्रम हो तो और भी बढिया होगा.. जैसे..तेजी से भागते समय और ढ़लती शामों से लेखकों को प्रकाशित पुस्तकों को लेने में कुछ परेशानियों से रूबरू होना पड़ा जिसे सम्मानित पत्र और मेडल के साथ देकर दूर किया जा सकता है।साथ ही थैले का भी इंतजाम जिसका मूल्य सहयोग राशि में ले लिया जाए। क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर के साथ बदलते यथार्थ के आयामों संग चलना भी जरूरी है।
अक्टूबर की हल्की ठंड पड़ती शाम, घड़ी की ४:३०बजे के साथ बसेरे की ओर इशारा कर रही थी। (अंतर्मन से आती आवाज़ हौले से बोली क्या लिख रही हो..संस्मरण ..कौन सा झंडा बुलंद कर ली..कई किताबें छपती है...पर..मैं भी न..शाद सी..नाशाद सी...कलम और मन कभी कभी रुकते नहीं।)
वहाँ बिताए कुछ पल स्मृतियों में दर्ज कर एक जहीन कोना सजाया जो रह रह कर एहसास कराता है..होने का..वजूद का..जिसमें मैं अक्सर बुनती, पिरोती रहती हूँ.. कभी कोई सपने, कभी मन कोनो में हँसती, बिसूरती यादें. है..न..ये लम्हों की सौगातें।
पम्मी सिंह'तृप्ति'...✍
मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी.. 24 अक्टूबर 2018 की सुरमई सुबह की आहट थी। जल्दी- जल्दी घर के सब कामों को निपटा कर 8:00 बजे तैयार थी, आज इनके के साथ ही चलूंगी ताकि कार्यक्रम के आरंभिक भाग से वंचित न रह जाउं। बिना किसी लाग लपटें ,पुछ-ताछ के वो तैयार भी हो गए। बेवजह हीं शंकित थी , कहींं दफ्तर में लेट हो जाने पर शब्द रुपी वाण न चला दे,.और मैं घायल हो मुँह पर बारह न बजा लू.. पर न..वो भी आसानी से तैयार हो गए ।
ह.. ना.. तो..पर मन के बियाबान जंगल में अक्सर ही एक साथ कई बातें उभर आतें हैंं। उसी झुरमुट के
पत्तों ,काटों,शाखों से कुछ फूलों को समेट इन पन्नों पर शिद्द्त से सजा देती हूँ। अपने वजूद के साथ शब्दों के तासीर को , इन सबके बीच तलाशती रहती।
रास्तों में आती-जाती गाड़ियां ,लोगोंं के बनते बिगड़ते चेहरे और जीने की कुछ पाने के जद्दोजहद में ,सब की कहानी अपनी जमीन के साथ तयशुदा दायरें में चलता रहता है। मैं भी अपनी कहानी का एक हिस्सा बताने जा रहे हूँ.. सहोदरी सोपान -५ की भागीदारी में एक भाग पर, पर सच कहूँँ... वैसे तो कभी झूठ नहीं बोलती😁पर बरसो लग जाते हैं , एक किरदार की मुकम्मल तस्वीर बनाने में, "पर जब घिरती हूँँ" कविता बहुत ही दिल के करीब है, क्योंकि यहाँँ तुम थी माँँ, हमारी " नीयत" की मौजूदगी के साथ जिंदगी की टकराहटोंं से पड़ने वाले घाव मात्र चुभते नश्तर और मुदावा से तकमील नहीं होती , बल्कि एक जोड़ी हाथ, नर्म फाहोंं के भी जरूरत होती है । जो शब्दों में तब्दील होकर " क्यूँ ना फिर मुस्कुरा कर निभाते रहेंं" में बिखर गई।
खुद के वजूद का अहसास कराती एक खूबसूरत संवेदनशील रचना को शब्दों में समेटने की कोशिश , "हमारी किस्सागोई न हो" इसलिए हकीकत की पनाह में आ गए ,क्योंकि पूर्णता की ओर निगाह सब की होती है , पर मेरी छोटी- छोटी अधूरी बातें छलक ही जाती है ,कभी अश्कों में, जज्बातों में, कभी रातों में ,ख्वाबों में ,रस्मों रिवाजों में, मातृत्व में, सहचरी बनने की कोशिश में, सच बोल रही हूँँ.. बहुत आगे नहीं, पीछे भी नहीं साथ चलना चाहती हूँँ।
इन शब्दों की खुलती गिरह और रिश्तों को समेटने की कोशिश को ही शब्दों में भर हल्की हो जाती हूँ।
हद हो गई दरवाजा खोल कर.." अंदर देखोंं कहाँँ क्या हो रहा है.. कितनी देर होगी?
मन के पन्नेंं, भावोंं का स्पंदन इसके के रोबीले आवाज से ठहर गई...
"अरे!वाहह.. पहुँँच भी गई.. वो भी मन के उपांतसाक्षी को वहीं छोड़ बोली.. मतलब.. तुम जाओ.. लंच बॉक्स ले लेना.. बाय!! और आगे बढ़ गई.. पर जानी पहचानी आहटों से यह क्या.. तुम गए नहीं.."
"पहले पता करो कहाँँ हो रहा है.. तुम्हारा सेमिनार ..मेट्रो से लौट जाना"
" मैं भी मूँह बना कर बोली.. शाम जब तुम ऑफिस से जाना तो मुझे भी ले लेना.. सालों बाद तो एक ही मौका मिला है तुम लाभ उठाओ.. जानती हूँँ तुम आओगे भी थोड़ा खिन्नता दिखाकर .. जनाब के आसानी से बोल तो फूट ही नहीं सकते.. वह भी आसानी से ..
मैं फोन कर दूंगींं.."
"ओके !!"
सधे कदमों से ऑडिटोरियम की ओर 'भाषा सहोदरी हिंदी " तरफ से हंसराज कालेज दिल्ली में दो दिवसीय छठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। साहित्य की दुनिया में तमाम नामी गिरामी हस्तियों के बीच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष आदरणीया मैत्रीय पुष्पा जी एवं हंसराज कॉलेज प्राचार्या डॉ रमा शर्मा जी ,पद्मश्री डा०सी. पी. ठाकुर जी ,मान्यवर जितेंद्र मणि त्रिपाठी(डी.सी.पी.) साहित्यकार के मुख्य आतिथ्य व सानिध्य में हंसराज कालेज, दिल्ली के सभागार से मानों कार्यक्रम में चार चाँँद लग गया ।
व्याख्यान में कथा ,लघु कथा के लेखन विधा के साथ साथ मौजूद विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया।
हिंदी में कार्य प्रणाली को बढ़ावा देने के साथ न्यायालय की भाषा बनाने पर विशेष जोर दिया गया जिस पर आदरणीय डॉक्टर सीपी ठाकुर राजसभा सांसद पद्मश्री अपने विचारों को व्यक्त किए।
पर इन सबों से भी ऊपर यह बात रही कि दक्षिण भारत से बहुत लोग इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए और पत्रिका के विमोचन में मुख्य भूमिका निभाई देश के हर राज्य से लोगों ने अपनी मौजूद मौजूदगी दर्ज कराई । मंच से स्वरचित काव्य पाठ की अविस्मरणीय प्रस्तुति से वो अनमोल घड़ी एक सुखद पल के साथ एक आत्मसाक्षात्कार का क्षण बना।दूसरे दिन २५ अक्टूबर२०१८ साझा संकलन (लघुकथा, कविता) पुस्तक का लोकार्पण मुख्य अतिथि द्वारा किया गया। जिसमें मेरी प्रतिभागिता सहोदरी सोपान ५ में पृष्ठ संख्या 165-168 में ,सम्मिलित है। इस पुस्तक के माध्यम से देश विदेश के विभिन्न रचनाकारों को पन्नों में सहेजना बराबर है मानो जमीन पर तारों की झिलमिलाहट पन्नों में उतर आया है। एक सहज,शालीन आवरण के साथ पन्नों को पलटते ही दृष्टि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संदेश पर ठहर जाती जिनका हिंदी भाषा को विश्वस्तरीय तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी शब्दकोशीय को दृष्टिगत कर रचनाकारों की पृष्ठ बनाया गया है। हर प्रांत ,पृष्ठभूमि से जुड़े पाठकों के लिए सहोदरी सोपान पाठकों के लिए सहस्रों धाराओं के समान फूटने,खिलने के साथ एक राह बनाती पुस्तक है।
सच है...सृजनशीलता के तले एक शांत नदी बहती रहती..जो इस पुस्तक के माध्यम से पृष्ठों के सतहों पर बही,जहाँ प्यास बुझती नहीं बल्कि शदीद से बढ़ जाती है।
कई अंजान चेहरों के बीच में एक डोर था ,और वो था शब्दों का डोर। किताबों के साथ हाथों में आते ही सबके हाथों के साथ नज़रें भी रक्स़ करने लगती और एक ग्रुप फोटों के साथ कार्यक्रम सहोदरी हिंदी भाषा आदरणीय जयकांत मिश्रा जी के तत्वावधान में समापन हुआ। यूँ तो कार्यक्रम काफी सफल रहा पर बेहतर बनाने के लिए कुछ सुझावों के साथ अगला कार्यक्रम हो तो और भी बढिया होगा.. जैसे..तेजी से भागते समय और ढ़लती शामों से लेखकों को प्रकाशित पुस्तकों को लेने में कुछ परेशानियों से रूबरू होना पड़ा जिसे सम्मानित पत्र और मेडल के साथ देकर दूर किया जा सकता है।साथ ही थैले का भी इंतजाम जिसका मूल्य सहयोग राशि में ले लिया जाए। क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर के साथ बदलते यथार्थ के आयामों संग चलना भी जरूरी है।
अक्टूबर की हल्की ठंड पड़ती शाम, घड़ी की ४:३०बजे के साथ बसेरे की ओर इशारा कर रही थी। (अंतर्मन से आती आवाज़ हौले से बोली क्या लिख रही हो..संस्मरण ..कौन सा झंडा बुलंद कर ली..कई किताबें छपती है...पर..मैं भी न..शाद सी..नाशाद सी...कलम और मन कभी कभी रुकते नहीं।)
वहाँ बिताए कुछ पल स्मृतियों में दर्ज कर एक जहीन कोना सजाया जो रह रह कर एहसास कराता है..होने का..वजूद का..जिसमें मैं अक्सर बुनती, पिरोती रहती हूँ.. कभी कोई सपने, कभी मन कोनो में हँसती, बिसूरती यादें. है..न..ये लम्हों की सौगातें।
पम्मी सिंह'तृप्ति'...✍
Nov 18, 2018
Oct 12, 2018
अब कहाँ..
अब कहाँ…
हैं ये मौसम ही
वक्त के साथ गुजर ही जाएगा
पर क्या...?
आनेवाली जिन्दगियों को गुदगुदाएगा
किए हैं बेजार हमने ही बस्तियों को
अब कहाँ..
बारिशों में कागज के नाव के वो नाखुदा खिलखिलातें हैं..
तारों जमीं की चाह में
किए हैं कई रातें आँखों में तमाम
पर क्या..?
अश्कों की बातों पर
पलकों की नमी कह नज़रें गमगुसार किए
अब कहाँ..
रात के आगोश में उल्फ़त से भरे खत लिखे जाते हैं
क्या अच्छा हो!
जो कभी ख्वाहिशों से मुलाकात हो
पर क्या..?
बंद दरवाजें पर दस्तकों से
मुस्कराने की बात पर वो पलकें भी निसार होगी
अब कहाँ..
चकोर चाँद पर मचलते हैं..
लफ्जों का असर जाता नहीं
भूलने की कोशिशें से भी भूलाया जाता नहीं
पर क्या ..?
इन लहजों -लहजों ,सलीको से फर्क आता नहीं..
अब कहाँ
अल्फाज़ों के दोश पर लोग सवार रहते हैं
ये जो बेहतरी का इल्म लिए फिरते हैं
वो आधी हकीकत है
पर क्या..?
अना की जिद में आइना संगसार नहीं करते
अब कहाँ..
वो काँपते हाथों की हिदायतों पर मौन सजाएँ जाते हैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति..✍
(दोश:कन्धा )
साहित्यिक स्पंदन में प्रकाशित नज्म..
💠
Sep 27, 2018
फिर क्यूँ तुम..
विधाः गज़ल
विषय: बाजार
हसरतों के बाजार में सब्र की आजमाइश है
फिर क्यूँ तुम तड़पते विस्मिल की तरह।
बाजार-ए-दस्त में खड़ा जज़्ब-ए-फाकाकश है
फिर क्यूँ ये वादे साइल की तरह।
तिजारत-सरे-बाजार में तलबगार खुश है
फिर क्यूँ तुम गुजरे गाफिल की तरह।
शोख,वफा,जज़्ब में हिज्र की आजमाइश है
फिर क्यूँ ये ठहरे साहिल की तरह।
ताजिरो की नियाज से आलिमों की जुबां खामोश है
फिर क्यूँ तुम तड़पे दुआ-ए-दिल की तरह।
©पम्मी सिंह 'तृप्ति'.. ✍
(गाफिल-भ्रमित, विस्मिल-घायल, साइल-याचक,
ताजिरो-व्यापारी, तिज़ारत-रोजगार, व्यपार, तलबगार- इच्छा रखना, नियाज-भिक्षा, दुआ ए दिल-हृदय की प्रार्थना, जज्ब ए फाकाकश-भूखे रह जीने की भावना)
Sep 25, 2018
Sep 20, 2018
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