अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
Aug 27, 2019
Aug 13, 2019
दोहें
धारा तीन सौ सत्तर हटा, बदल गया इतिहास।
दृढ संकल्प से तम छटा, बना नया इतिहास।।
भारत हुआ एक समान,एक झंडा एक निशान।
एक संविधान के विधान, लिख रहा नव विहान।।
देश का गौरव है यह, गूँज उठा जयगान।
नव पल की नई सुरभी, खिल उठेगा मुस्कान।।
केसर वाली बाग में , हुआ चमन गुलजार।
क्यारी-क्यारी खिल उठा,छाया चमन बहार।।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍
Jul 9, 2019
Jun 26, 2019
इंसानियत मादूम हुए..
बिहार (मुज्जफरपुर) की घटनाओं पर चंद असरार..
इंसानियत मादूम हुए,आँखों में बाजार समाएं बैठे हैं
देखे थे जो सब्ज़-ए-चमन,वो ख्वाबोंं में समाएं बैठे हैं
किस तरह भूलेंं वो बस्ती ओ बच्चों की ठहरीनिगाहें
ये दर्द गहरा,जख़्म ताजा पर बजारों के शोर उठाएं बैठे हैंं
मुंसिफ, वज़ीर ,रहबरी लफ्जों को पैकर में ढाल रहे
आँगन की किलकारियां,खामोश हो मिट्टी में दबाएं बैठे हैंं
आलस के ताल पर सारी राजनीति व्यथा कराह रहे
कतरा -कतरा पिघल रहा आप मूँह में दही जमाएं बैठे हैंं
लाव-लश्कर की रैली सुनी-सुनी आँखों में खटकती है
हकीकत की अब फ़सल उगाओ क्यूँ वक्त गवाएं बैठे हैंं।
पम्मी सिंह'तृप्ति'...✍
पैकरः आकृति, figure, मादूम ःलुप्त
May 26, 2019
जल संरक्षण..
एहतियात जरूरी है,घर को बचाने के लिए।
पेड़-पौधे ज़रूरी है,ज़मीन को संवारने के लिए।।
कर दिया ख़ाली ,जो ताल था कभी भरा ।
मौन धरा पूछ रही, किसने ये सुख हरा।।
दरक रही धरती की मिट्टी, उजड़े सारे बाग।
त्राहि - त्राहि मचा रहा, छेड़ो अब नये राग।।
जल ही कल का जीवन है,कर लो इसका भान।
जो समय पर न चेते,खतरे में होगी अपनी जान।।
सोम - सुधा बरसाता ,ये ताल - तलैया है जिंदगी।
संरक्षित करों बूंद - बूंद को,अब यही है बंदगी।।
पम्मी सिंह'तृप्ति'
दिल्ली
बदलेगी कौम की तकदीर..
बदलेगी कौम की तकदीर..
नरेंद्र मोदी की आध्यात्मिक साधना महज नहीं दिखावा हैं
अध्यात्म संस्कृति,अजस्र उर्जा से विश्व को राह दिखाना है।
अध्यात्म संस्कृति,अजस्र उर्जा से विश्व को राह दिखाना है।
जम्हूरियत की ये मिसाल महज नहीं एक फसाना है,
इक नई छब से इबारत लिख मुल्क को सवारना है।
बदलेगी कौम की तकदीर, ये आस भी जगाई है,
नए इबारत के आस में एक अलख तो जलाई है।
जो गुजर गए आँधियों से,शाखें वहीं बचती है,
जो उभर गए आँधियों से,शख्सियत वहीं निखरती है।
राष्ट्रवाद के जद में नया परचम लहराया है,
इक खुशनुमा परचम तले ख्वाब आँखों में उतर आया है।
रहे ये जज़्बा कायम कर्मपथ के राहों में
जीव ही शिव है के संदेश में भावी भारत समाया है।
©पम्मी सिंह 'तृप्ति'
May 11, 2019
जब भी घिरती हूँ..
विधा- मुक्त
विषय- माँ , मातृ दिवस
जब भी घिरती हूँ...
बाकी सब जहाँ के रवायतों में सहेज रखा ..
पर.. जब भी घिरती हूँ दुविधाओं में
माँ..सच तेरी, बहुत कमी खलती है,
मुख्तलिफ राहों में तूने ही तो संभाला है
अब हवा दुखों की तब्दील होती नहीं
सर पे हथेलियों की गर्माहट महसूस करती नहीं
क्यूँ ये हालात हैं? जो मजबूर है इतना
जो ख़ाली बैठी रही,,अपनी ज़ात से,
काश ! वो लम्हा ठहर जाता..
क्यूँ जरूरी बन जाता है.. इस तरह से बिछड़ना,
कि बिछड़ें भी तो दिल में बस जातें हैं,
वो वक्त का सिकंदर मौजूद है हमारे दर्मियान..
जहाँ की रस्मों के खातिर,अपने आस्ताँ पे हैं खड़े
और दिलों में उठती हर कसक को दबाना पड़ता है,
पर कहते हैं, हथेलियों की बची ख़ुशियाँ, दुखों पर ही भारी बनता है
ये कैसा क़र्ज़..था.. दुआओं में,
दूर हूँ.. बड़ी..महफ़ूज़ हूँ,
जीते जी तो कह ना सकी
पर जब भी घिरती हूँ..मॉ
सच्ची तेरी बहुत याद आती है..।
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’
दिल्ली
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