अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
Nov 23, 2015
Oct 29, 2015
तलाश
तलाश
स्वतंत्रता तो उतनी ही है हमारी
जितनी लम्बी बेड़ियों की डोर
हर इक ने इच्छा, अपेक्षा,
संस्कारो और सम्मानो की
संस्कारो और सम्मानो की
सीमाए डाल रखी है,
तलाश है उस थोड़े से आसमान की
तलाश है उस थोड़े से आसमान की
किसी ने कहीं देखा है?
वो इक आकाश का टुकड़ा
वो इक आकाश का टुकड़ा
जहाँ हम ही हम हो,
उन्मुक्ता, अधिकार मिली सभी चराचर को
फिर. ..
फिर. ..
हमे मांगना ही क्यों पड़ा
क्यू न हो ऐसा कि
स्वतंत्रता सब की जरूरत बन जाए...
तलाश है उस थोड़े से आसमान की
फिर..
उस वसुन्धरा की काया
कुछ और ही होती
तलाश है...
- © पम्मी सिंह 'तृप्ति'..
(चित्र गूगल के सौजन्य से )
(चित्र गूगल के सौजन्य से )
Sep 30, 2015
Kuchh
कुछ
भावनाओं , संवेदनाओं एवम विचारों की प्रस्तुतिकरण की प्रयास ताकि शब्द और भावो की अभिवयक्ति संजीदगी से हो कुछ से सबकुछ का सफर..…
ये जिन्दगी की राह हमें अनेक घटनाओं से रूबरू कराती है। चुन-चुन कर थोड़ी ख़ुशी ज्यादा से बहुत जयादा की अपेक्षा मे अनेकाएक फूल और पत्तों को झोली मे डालने के क्रम मे न जाने कितनी बार कभी हाथो को तो कभी अपनी मनोभावों को इच्छा अनिच्छा से घायल करना और होना पड़ा.….... देखा जाए तो अवसरों का अभाव न पहले था न होगा।
कुछ अवसरें भी प्राप्त होती हैं । प्रश्न गुणवत्ता एवं मात्रा की होती है, सफलता की महत्ता चुनाव पर निर्भर है। कब , कहाँ और कैसे , किस तरह के प्रश्न। हाँ … ये प्रश्न आकांक्षा और समाधान के चक्रव्यूह मे ही तो है। जिंदगी की एक बड़ी भाग इसी तनाव में गुजर जाती है कि इच्छा क्या है ? किसी एक की चुनाव और कोशिश मे चूक हो जाती है. . असमंजसता , अपेक्षताएं की स्थिति बलवती होती है कि विवेकशुन्यता की ओर कदम बढ़ती हुई जान पड़ती है। संघर्ष की प्राररभाव भी यही से उद्भव होती है रेत हथेलियों मे ही रहे.…
इस जद्दोज़हद को फलदायक रूपी बनाने के लिए संघर्षशीलता , कर्मठता और संकल्पता की पृष्ठभूमि को सुदृढ़ करने की आवश्कता है। भूमि का प्रभाव सकारात्मक हो तो कर्तव्य निर्वाहन की ओर अग्रसर। क्षणिक व्यवस्थाओं और अव्यवस्थाओं से ऊपर उठ कर क्रियात्मक अनुशीलन ही जीवन निर्वहन है।
कुछ अपनत्व की चाह में , राह में..… रिश्तों को जोड़ने- तोड़ने , समझने की व्याकुलता कतिपय कारणों से अनेक मनोगत भावों से गुजरना पड़ा क्योकि समस्त भाव व्यक्त करने मे नहीं आती, कुछ भाव भंगिमा से शेष क्रियात्मक की श्रेणी मे आती हैं। यहाँ दूरदर्शिता के प्रभाव से नहीं बचा जा सकता परन्तु मात्र स्वपनशील न होकर समाधानकर्ता के रूप मे किया जाए तो सफलता अवश्य है। कुछ या किसी एक का चुनाव एवम कर्म के प्रति उत्कण्ठा को जागृत करना सदसत् प्रवृत्तिओं की संघर्ष है। साधारण मनुष्यों (कुछ और किसी एक ) में सम्बन्ध गहरा है , द्व्न्द् सदा से रही है। इनका होना जीवनशैली की सार्थकता और संतुलित प्रदान करती है।
आम हुँ पर संज्ञाशून्य नहीं इसलिए लाख जतन के बाद भी कृतित्व गहरी नींद मे नहीं है..…कुछ और हरी भरी की चाह मे संघर्षरत बनी रहेगी।
Sep 1, 2015
ओम तत्सत्
| | वास्तविक संघर्ष तो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का है | |
गीता की ये पंक्तियाँ मनुष्य की मनोगत समस्त भाव भंगिमा की क्रियातात्मक रूप को दर्शाता है । यहाँ शरीर क्षेत्र है और जो इसको भली प्रकार से जानता है वह क्षेत्रज है। पर उसे संचालक होना है मन की अनेक भावना से दुविधा मे फॅसा प्राणी नहीं । इसमे एक बार विजय प्राप्त कर ले तो प्रकृती सदा के लिए विजय प्राप्त करती है । इस विजय के पीछे हार नहीं है ।
हम जैसे मनुष्य की प्रबल इच्क्षा की प्रवृति दो मुख्य कारणो से है ख़ुशी और अधिकार प्राप्त करने की प्रवृति । ये वृति हमे थोड़ा से बहुत की और ले जाती हैं । हमारी पूरी जिंदगी इसे पाने मे गुजर जाती है । परिणाम स्वरुप हम तनावपूर्ण और दुखी होते है । इच्क्षा अंतहीन सिलसिला है । हममे योग्यता और मात्रा दोनों मे असमंजसता बनी रहती है ।
मुश्किल हालात यह है कि इसे दबाया भी नहीं जा सकता और न जल्द समाधान ।
सुझाव यह कि अनियंत्रित इच्क्षा को नियंत्रित कर एक दायरे मे रखा जाए अन्यथा खुशियो की समाप्ति निश्चित है ।
जज्बा इन पंक्तियों मे "
आज भी जी सकती हूँ
आज भी जी सकती हूँ
खुद की नाकामी सही पर,
जिंदगी नाकाम नहीं
क़ुछ पाने की तलब..
दो चार कदम और सही.. "
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