ओम तत्सत्
| | वास्तविक संघर्ष तो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का है | |
गीता की ये पंक्तियाँ मनुष्य की मनोगत समस्त भाव भंगिमा की क्रियातात्मक रूप को दर्शाता है । यहाँ शरीर क्षेत्र है और जो इसको भली प्रकार से जानता है वह क्षेत्रज है। पर उसे संचालक होना है मन की अनेक भावना से दुविधा मे फॅसा प्राणी नहीं । इसमे एक बार विजय प्राप्त कर ले तो प्रकृती सदा के लिए विजय प्राप्त करती है । इस विजय के पीछे हार नहीं है ।
हम जैसे मनुष्य की प्रबल इच्क्षा की प्रवृति दो मुख्य कारणो से है ख़ुशी और अधिकार प्राप्त करने की प्रवृति । ये वृति हमे थोड़ा से बहुत की और ले जाती हैं । हमारी पूरी जिंदगी इसे पाने मे गुजर जाती है । परिणाम स्वरुप हम तनावपूर्ण और दुखी होते है । इच्क्षा अंतहीन सिलसिला है । हममे योग्यता और मात्रा दोनों मे असमंजसता बनी रहती है ।
मुश्किल हालात यह है कि इसे दबाया भी नहीं जा सकता और न जल्द समाधान ।
सुझाव यह कि अनियंत्रित इच्क्षा को नियंत्रित कर एक दायरे मे रखा जाए अन्यथा खुशियो की समाप्ति निश्चित है ।
जज्बा इन पंक्तियों मे "
आज भी जी सकती हूँ
आज भी जी सकती हूँ
खुद की नाकामी सही पर,
जिंदगी नाकाम नहीं
क़ुछ पाने की तलब..
दो चार कदम और सही.. "
बहुत ही सुंदर पोस्ट। हमारी धार्मिक पुस्तकों में जो कुछ लिखा है, वह हमारी भलाई के लिए ही है।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर पोस्ट। हमारी धार्मिक पुस्तकों में जो कुछ लिखा है, वह हमारी भलाई के लिए ही है।
ReplyDeleteअच्छा विमर्ष है .
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