राजनीति में साहित्यकारों की भूमिका
अंधकार है वहाँ - जहाँ आदित्य नहीं।
मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं।।
वर्तमान में लोकतंत्र और बदलाव की राजनीति का शोर है लेकिन साहित्य और संस्कृति इसकी पृष्ठभूमि में कहाँ है।
राजनीति में बदलाव सर्वव्यापक है जिसका प्रभाव हमारे समाज पर पड़ता है । सवाल उठता है कि आखिर कहाँ तक साहित्यकार राजनीति को प्रभावित करते हैं ।
राजनीति का संबध जहाँ शासन पद्धति से तो वहाँ साहित्य का संबंध जीवन पद्धति से जुड़ा है । समयानुकूल राजनीति अब समाज केंद्रित हो रहा है । ऐसे माहौल में साहित्यकारों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। “साहित्य” का अर्थ शब्द और अर्थ को यथावत सहभाव है । साहित्य और राजनीति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध है। जो सोपान की तरह जो कभी नीचे से ऊपर की और तो कभी ऊपर से नीचे की ओर बढ़ती है । दोनों का उद्देश्य जन कल्याण की भावना से प्रेरित है ।
प्रेमचंद जी ने समाज और राजनीति के आपसी संबंधों के बारे में कहा
“ जिस भाषा के साहित्य का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छे होने पर स्वभावतः राजनीति भी अच्छी होगी। यह तीनों साथ - साथ चलने वाली चीजें हैं । इन तीनों का उद्देश्य ही जो एक है। यथार्थ में समाज, साहित्य और राजनीति का मिलन बिन्दू है।“
साहित्य समाज में व्याप्त राजनीतिक, सामाजिक गति-विधि को दर्शाता है । जो घटनाएँ, नीतियाँ और परिस्थितियाँ समाज के अस्तित्व में आती है । साहित्यकार उनके शब्दों के माध्यम से प्रकट करता है । साहित्य स्वयमेव शक्ति संपन्न है । यह ना सिर्फ राजनीतिक दल की वैज्ञानिक प्रगति , आर्थिक उन्नति सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतिनिधित्व करता है।
साहित्य और राजनीति के कार्यक्षेत्र भिन्न है, फिर भी लक्ष्य एक जो समाज का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर प्रगतिशील समाज का निर्माण में सहायक है।
स्वच्छ समाज का निर्माण भी तभी संभव है जब तक साहित्यकारों की कलम किसी राजनीति की महत्वकांक्षाओं के अधीन ना हो । स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए , क्योंकि साहित्य अनुभूत विचारों का संग्रह है। अतः वर्तमान समय में साहित्यकारों का यह पुनीत कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य का सृजन करें जो राष्ट्र की नीति- निर्धारण में सहायक हो । सत्साहित्य के ही प्रसाद पर राष्ट्र के विकास की नींव आधारित है।
पम्मी सिंह..✍