अब कहाँ…
हैं ये मौसम ही
वक्त के साथ गुजर ही जाएगा
पर क्या...?
आनेवाली जिन्दगियों को गुदगुदाएगा
किए हैं बेजार हमने ही बस्तियों को
अब कहाँ..
बारिशों में कागज के नाव के वो नाखुदा खिलखिलातें हैं..
तारों जमीं की चाह में
किए हैं कई रातें आँखों में तमाम
पर क्या..?
अश्कों की बातों पर
पलकों की नमी कह नज़रें गमगुसार किए
अब कहाँ..
रात के आगोश में उल्फ़त से भरे खत लिखे जाते हैं
क्या अच्छा हो!
जो कभी ख्वाहिशों से मुलाकात हो
पर क्या..?
बंद दरवाजें पर दस्तकों से
मुस्कराने की बात पर वो पलकें भी निसार होगी
अब कहाँ..
चकोर चाँद पर मचलते हैं..
लफ्जों का असर जाता नहीं
भूलने की कोशिशें से भी भूलाया जाता नहीं
पर क्या ..?
इन लहजों -लहजों ,सलीको से फर्क आता नहीं..
अब कहाँ
अल्फाज़ों के दोश पर लोग सवार रहते हैं
ये जो बेहतरी का इल्म लिए फिरते हैं
वो आधी हकीकत है
पर क्या..?
अना की जिद में आइना संगसार नहीं करते
अब कहाँ..
वो काँपते हाथों की हिदायतों पर मौन सजाएँ जाते हैं।
पम्मी सिंह 'तृप्ति..✍
(दोश:कन्धा )
साहित्यिक स्पंदन में प्रकाशित नज्म..
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