ख्वाबों की जमीन तलाशती रही
अर्श पे दर्ज एहकाम की तलाश में कितनी रातें तमाम हुई
इंतजार, इजहार, गुलाब, ख्वाब, वफा, नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई
कुछ तो रहा गया हममें जो जख्म की बातों पर मुस्कराते है
हर सुब्ह संवरता है मानों खिजां में भी फूलों की ऐहतमाम हुई
जमाने की जद में हम कुछ और बढ गए
अब रक़ीबो को एहतिराम करते कितनी
सुब्हो- शाम हुई
लब सिल लिए अमन की खातिर
ज़रा सी सदाकत पर क्या चली मानो शहर में कोहराम हुई।
© पम्मी सिंह'तृप्ति'.✍
(एहकाम-आदेश, ऐहतमाम- व्यवस्था, अर्श-आसमान, एहतिराम-कृपा:आदर, ख़िजा-पतझड़, रक़ीब-प्रतिद्वंदी)