Jul 15, 2017

न जाने क्यूँ पेश आती..


 न जाने क्यूँ पेश आती..


कभी हमें भी यकीन था..,पर कभी-कभी

जिंदगी न जाने क्यूँ पेश आती है

अजनबियों की तरह

इन आँखों में बसी  ख्वाबों के, मंजर 

अभी बाकी है

पीछे रह गए तमाम हसरतों के, अन्जाम

अभी बाकी है

वो क़हक़हा जो ठिठकी हैं दरख्तों पर,उनके 

खिलने की अब बारी है

जुस्तजू हैं , सबकुछ में से कुछ के पाने की

शनासा  हूँ कि,
मैं हूँ छोटीसी लहर

छोटी लहरों पर ही, पड़ते हैं पहरे और

जिन्दगी की ज़ोर - हवा हैं कायम..

पर मेरी फसाने की, मनमानी 

अब भी बाकी है
                                       ©पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️                                


लेखकीय रूप

   अच्छा लगता है जब विशिष्ट समकालीन संदर्भ और तुर्शी के साथ जीवन,समाज के पहलूओं  को उजागर करतीं लेख छपती है। इस सफ़र का हिस्सा आप भी बनिए,प...