लिख कर तारिखें फिर मिटा डालीं हमने,
इक उम्मीद जगाकर भूला देते हो तुम,
क्यूँ रिश्तों के धागे उलझा देते हो तुम
दम- ब- दम शिकायतें तो बनी रहती है,
क्या अपनी भी खतायें गिना करतें हो तुम।
लिख कर तारीख़े फिर मिटा डालीं हमने,
क्या अपनी भी सदाएँ सुना करतें हो तुम।
चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,
क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।
यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,
क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
शबीह ःतश्वीर,दम ब दमः घड़ी घड़ी