Apr 25, 2018

समीक्षा




काव्यकांक्षी , कवयित्री पम्मी सिंह की कविताओं का पहला संकलन होकर भी भाव और भाषा की दृष्टि से परिपूर्ण है। संकलन की कविताओं में भावना का प्रवाह और अनुभव की कसौटी दोनों ही देखने लायक है। तलाश कविता की पंक्तियां -स्वतंत्रता तो उतनी ही है हमारी जितनी लंबी डोर ! सहज ही स्त्री मन की विवशताओं को  साफगोई से चित्रित करती है, इसी प्रकार कई राह बदल कर, किताबों के चंद पन्ने, निशान धो डालें ,जैसे दर्जनों कविताएँँ हैं जो पाठक के मन -मस्तिष्क को झकझोरती  है। कवयित्री पम्मी सिंह के लगातार लेखन के लिए शुभेच्छा एवं
 'सुरसरि सम सब कहँ  हित होई ' 
की मंगल कामना है।

सुबोध सिंह शिवगीत
हिन्दी विभाग




मैंने पम्मी सिंह के काव्य संकलन "काव्यकांक्षी" की कविताओं को पढ़ा काव्य और शिल्प के स्तर पर कविताएं नयी है। ये हमारे जीवन की संवेदनाओं से जुड़ी है तथा समकालीन मानव - प्रवृत्तियों से  गहरे रूप से जुड़ी है । कवयित्री का अनुभव व्यापक है




पम्मी सिंह की कविताएँँ एक उभरती हुई काव्य प्रतिभा के अंतर्मन की सहज अभिव्यक्ति है। इन कविताओं में कवयित्री के स्वप्न और आकांक्षाओं का प्रगटीकरण बेहद ही सधे अंदाज में हुआ है। मैं पम्मी सिंह की कविता के प्रति समर्पण भाव को देखकर उनके भविष्य में सफलता के प्रति आशान्वित हूँँ।
    भरत यायावर
हिन्दी विभाग
बिनोबा भावे विश्वविद्यालय 

Mar 31, 2018

लफ्ज़ जो बयां ..



















लफ्ज़ जो बयां न हो सका
तन्हाइयों में मुखर हो जाता 

कोई है जो उसी मोड़ पर रुका, कोई है जो संग चला
वो सलीके से हवाओं में खुशबू बिखर जाता

कीमियागर बना है, कई अनाम लम्हातों का
तन्हाइयों में रकाबत का रिश्ता भी निखर जाता 

रहगुज़र है तन्हा ,ग़म -ओ- नाशात का
इस अंधे शहर में जख्म फूलों का प्रखर जाता

लो आई है बहारे, जज़्ब हसरतों का
काविशों का मौसम में  ही,
 शऊर जिंदगी का निखर जाता
पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍



कीमियागर :रसायन विधा को जानने वाला
काविश: प्रयत्न, 
रहगुज़र :रास्ता, पथ
रकाबत: प्रति द्वंद्वी,प्रणय की प्रतियोगिता

Feb 16, 2018

जब डालती है ख्वाबों में खलल..




वाकिफ तो होेगें इस बात से..
इन पलकों पे कई सपने पलते हैं
उफ़क के दरीचों से झाँकती शुआएं
डालती है ख्वाबों में खलल..
जो अस्बाब है
गुजिश्ता लम्हों की, 
पर ये सरगोशियाँ कैसी?
असर है 
जो  एक लम्हें के लिए..
शबनमी याद फिर से मुस्कराता है
पन्ने है जिंदगी के..जिनसे
सूर्ख गुलाबों की खुशबू जाती नहीं,
जिक्र करते हैं ..
इन हवाओं से जब 
एक बूंद ख्यालों के
पलकों को नमी कर
फिर खलल डाल जाता है..
                                  पम्मी सिंह✍

उफ़क-क्षितिज,दरीचे-झरोखे,
शुआएं-किरणें,अस्बाब- कारण,वजह,
गुजिश्ता-बिती बात,



Jan 18, 2018

बवाल..






सुर्खियों में बवाल भी बिकते हैं
जो इघर रुख करें..
तो दिखाए बवाल इनकी..
मुंसिफ की जमीर है 
सवालों के घेरों में 
हाकिम भी वही
मुंसिफ भी वही
सैयाद भी वही
शिकायत भी कि बरबाद भी वही,
सो बीस साल से पहले
जम्हूरियत के दम पे बवाल कर बैठै,
समय के साथ 
बदल लेते हैं लिहाज़
खोखले शोर की शय हर सिम्त 
मसीहा के नाम दोस्तों
सोची समझी..
ये कोई और खेल है
फकत सवाल है हमारी..
क्यूँ इस्तहारों के नाम पे 
आप बवाल  बेचते हैं?
               पम्मी सिंह..✍


Dec 31, 2017

ये अक्सर मिलती कम टकराती..









कई मर्तबा हमनें जिन्दगी को ताकिद की,”बाज..आ.. अपनी चुगलखोरी से..”
पर "नहीं.. "
ये अक्सर मिलती कम टकराती ज्यादा है..बस एक मैं ..घास की तरह हर दफा उग आते हैं
फिर.. हरी भरी बन बड़े नाज़ से उठकर, बनकर संभल जाते हैं.. कि कहीं..
स्याही खत्म होने पर लिखना थोड़े ही छोड़ा जाता है..
बहुत बड़ा हिस्सा छीन कर ये साल गुजर गया..
मैं  ठिठकी रही …आवाज आयी कि “तू अइबै न पम्मी” मैं बोली आउँगी..जो पहली फ्लाइट मिलेगी मैं आउँगी”
मैं पहुंच भी गई पर आप न आँख खोली न बोली..
अपनी तरफ से यथासंभव हम बहनें सभी फर्ज पूरा किया…
पर क्या करें.. यही समय है जब हम इतने असहाय हो जाते हैं..
कोई अदृश्य शक्ति(भगवान) तो है..वर्ना फोन से तो मैं बहुत पास थी पर..
इन हथेलियों में बचे खुचे सुख ही बड़े दु:ख को बर्दाश्त करने की शक्ति देतें हैं।कई
बार उदासियों से मन भरा पर जिंदगी की जिम्मेदारियाँ  कहाँ फुरसत देती है।
मैंने भी कहाँ.. वाह!जी..

"इल्जाम भी आपकी,अना भी आपकी 
तो क्या? जीने के बहाने भी हमारे न होगें..।"

शुक्रिया ..हर गुजरते लम्हों का जो हम

 वक्त की धार
और लोगों के वार और प्यार
 को समझ तो गए..।

थोडा मुस्कुरा लो (सभी बहनों से)
नहीं तो अभी मम्मी बोलेगी “मुँह बनाके काहे बैठल बाड़ूस..
उठबू कि न..साँझ के समय बिछावन छोड़ो..।“
नए साल की शुभकामनाओं के साथ..


“लीजिए वक्त भी चल कर
नए साल में आ गया 
जिसके उनवान से मुस्करातें हैं
तो क्यूँ न शादाबों की आहटें हो
सलीका, अदब की बातें हो
पर बे-सबब और बे-हिसाब बातों पे 
शानदार इबारतें न हो..
हर गुजरते पलों से
आने वाले पलों की हमनें  दुआएं मांगी
कुछ इस तरह से हमारी नव वर्ष की बातें हो..।“
                                              पम्मी सिंह

Dec 17, 2017

रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही..




हमारी किस्सागोइ   न हो..इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की 
पनाह में आ गए हैं,
अजी छोड़िए.. 
उजालों को..
यहाँ पलकें भी मूंद जाती है,
अंधेरा ही सही.. 
पर आँखें तो खूल जाती है,
हमने भी उम्मीद कब हारी है?
फिर नासमझी को  
सिफत समझदारी से समझाने में
ही कई शब गुजारी  हैं,
अब सदाकत के दायरे भी सिमटे 
तभी तो झूठ में  सच के नजारें हैं
जख्म मिले हैं अजीजों से
निस्बत -ए-खास से कुछ दूरी बनाए रखे हैं
छोड़िए इन बातों को..
जिन्दगी ख्वाबों ,ख्यालातों और ख्वाहिशों 
कहाँ गुज़रती है,
रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही
समझदारी है ,इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की 
पनाह में आ गए हैं..
                      ©पम्मी सिंह..

Nov 17, 2017

मजाल है जो ज़ेहन से रुखसत हो..





क्यूँ नहीं भूल जाती
 बेजा़र सी बातों को हजारों बातें तो रोज़ ही होती रहती.. चलो एक ये भी सही..
पर न..मजाल है जो ज़ेहन से रुखसत हो
दिमाग में तो किराएदार के माफिक घर ही कर गई कई दफा गम ख्वार ख्यालातों को उतार फेका पर नहीं..
छोड़ो भी,भूल जाओ,कोई बात नहीं, आगे भी बढों..कहना जितना आसान असल में भूलना उतना ही मुश्किल..
बस एक छोटी सी ख्वाहिश है कि भूलने की कोई दवा इज़ाद हो जाए..
तो फिर क्या बात होगी..
पर वो खुल्द मयस्सर न होगी..
हाँ.. जहीनी  तौर पर आराम तो होगी..
सबसे बड़ी बात कि ये जो हमारी आँखें हैं  न..
कम से कम मेढक की आँखों की तरह तो नहीं बनती..
 मानो अभी ये हथेलियों पर आ कर उछल कूद मचाने लगेगी..
उ..हूँ..
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ.. मेरी बातें कमजर्फ सी लग रही होगी..
पर मैं आज यही लिखूंगी..
भूलने वाली बातें याद और याद रखने वाली बातें भूलकर लगी तारे गिनने क्यूँ कुछलोग हद पार कर जाते ..
बितता लम्हा बिसरे नहीं..
बहुत दिन हुए ..खु.. के गालों पर पड़ते डिम्पल को देखे..रब के हिटलिस्ट में हूँ शायद..
अधखुले किताबें, अखबारें, एक कप..ये क्या है,
क्यूँ है..कौन सा सलीब है..

ऐसी भी जहीनी क्या?
बेफिक्री वाली हंसी हंसना चाहती हूँ ..इत्ता कि
सामने वाले की हंसी या तो गायब हो (मानो कह  रहा लो मेरे हिस्से की भी ले लो)या हंसने लगे
और मन के किसी कोने में बैठा भय बस..सहम ही जाए..
मुसाफिर हूँ बस.. खुशनसीब शज़र की 
दरकार तो बनती है..
इसमें कुछ गलत तो नहीं..  क्या ?
ज़िंदगी का सवाल और  सफ़लता  नफा नुकसान में ही क्यूँ समझ आता है।
                                                                                                   पम्मी सिंह.., ✍



अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...