जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे
पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे,
मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर
अनकहे का रिवाज है पर कहे को निभाए जा रहे।
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
अनभिज्ञ हूँ काल से सम्बन्धित सारर्गभित बातों से , शिराज़ा है अंतस भावों और अहसासों का, कुछ ख्यालों और कल्पनाओं से राब्ता बनाए रखती हूँ जिसे शब्दों द्वारा काव्य रुप में ढालने की कोशिश....
डायरी 20/जून 24 इधर कई दिनों से बहुत गर्मी आज उमस हो रही। कभी कभार बादल पूरे आसमान को ढके हुए। 'सब ठीक है' के भीतर उम्मीद तो जताई...
ज़िन्दगी यही है ... कुछ और कर भी नहीं सकते पढने के सिवा...
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