कहने को तो ये जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत असबाब और हम न जाने किन चीजों में उलझे रहते है. हाल चाल जानने के लिए किसी ने पूछा कैसे दिन कट रहा..
" सब ठीक ठाक " बोल निकल गई पर,जबकि सब ही शब्द विराट भाव लिए है.
सुकून की एक लंबी सांस ले गजल फैज अहमद फैज."मुझसे पहली सी मोहब्बत..." लगा ,किताब के कुछ पन्ने पलटते लगी पर मन में कुछ अटका हुआ महसूस कर रही..क्या है क्यूं है..बालकनी में मुस्कराते मोगरे के फूल देख ,स्मृतियों के आंगन से ...
कोई ध्यान भी न दे पर ये लिखने ,पढने की आदत' है तो है।' पत्रिका में धर्मयुग,माया,कादम्बरी ,सरिता,सारिका ,मनोरमा,गृहशोभा के अलावा प्रतियोगी परीक्षा के लिए किताबे कम्पीटेशन सक्सेस रीव्यू हर महीने आता था. चाचा भी साथ रहते तो सब कुछ न कुछ पढते रहते, साथ -साथ बातें, गप के साथ बहस बाजी भी..दुपहरी तो आंनद और किताब को छुपाने में कि कही कोई और ले जाए।(अमरचित्रकथा,चंदामामा,बैताल,मैन्ड्रक...)
'कांरवा' (त्रैमासिक),'इंडिया टुडे 'राजनीतिज्ञ ,सामाजिक तर्कसंगत लेख भी पढती हूं।
( मजाक में घर में बोल देते कि UPSC में बैठना है?)
आज भी आदत है माध्यम जरूर बदल गया.मोबाइल ,इन्टरनेट के साथ आज भी पत्रिका मंगाती हूं।blinkit पर मिलने से पत्रिका नहीं मिलने की शिकायत नहीं रहती।
आस - पास से मिलने वाले से बात करे तो सब बोलते.. पढते थे , मंगाते थे.स्थिरता की कमी लोगों में है, अगर मोबाइल पर भी चार लाइन से जादा हो तो नहीं पढते.
"समय की कमी का बहाना ...बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने हो गए. "
साहित्यिक गोष्ठी में जब गई थी,कुछ लोगो से पुछी भी क्या आप पत्रिका पढती है या मंगाते है किसी ने भी हां नहीं कहा बस घुमने खाने पीने आ गये..कुछ तो बोली पिछले बार जो गिफ्ट हैंपर में मिला वो पढ ली यही हकीकत है.
चलिए ये किस्सा चर्चा विषय था पढने की आदत छूट रही.." आजकल किताब लोग कितना खरीदते है?"
"कुछ व्यवस्थाए गति के साथ भविष्य भी तय करती हैं"
पेपर डिलीवरी में भी आजकल परेशानी हो रही..तो मैगजीन का क्या होगा?
हमारे सोसाइटी में एजेंट जो न्यूज पेपर डिलीवर करता है. बिल से जादा पैसा लेता,हमारे यहां टाइम्स ऑफ इंडिया,दैनिक जागरण ( इसकी हिंदी बाकी हिंदी पेपर से सही है)बिल से सौ रुपए जादा लेता इस तरह का कम्पेलन बहुत लोग करते mygate पर. उससे भी बोला गया पर कुछ नहीं..यहां तक की "टाइम्स ऑफ इंडिया","हिन्दुस्तान टाइम्स","टेलीग्राफ "के आफिस में कम्पेलन भी लोगो ने की पर कोई सुनवाई नहीं.कुछ लोगो के साथ मैं भी पेपर बंद की,शायद प्रेशर पड़े पर
उसके लिए तो "सब धान बाइस पसेरी"
बहुत लोगो ने डिजिटल ले ली और कुछ लोग ग्रुप में शेयर कर देते.एजेंट का जबाब कि घर पर पहुचाने का हमें भी लडको को देना पडता है हम अपने पाकेट से तो नहीं देंगे. आजतक पेपर ली किसी भी शहर में बिल के अलावा कभी न दी न किसी ने मांगा पर पौश एरिया गुरुग्राम (द्वारका एक्सप्रेस) में ये हाल है. पचास बसंत देख ली पर अब पहली बार पेपर डिजिटल फार्म में पढ रही ..वो लगावट ही नहीं लगती..सुबह की पेपर,चाय ,बालकनी और कुछ मुद्दे पर चर्चा खो सी गई..इसमें तो प्रकाशन विभाग की गलती है ...कन्जूमर को क्या दिक्कत हो रहा वो सुने तो. मेट्रो शहर में रख कर ये लिख रहे .."हमारी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था..।"
प्रिंट मिडिया छापने के बाद डिलीवर पर भी तो ध्यान दे. बात यहां 100,50रूपया की नहीं पर बेवजह किसी की हनक में क्यूं दे? शार्ट में कहे तो नए तरह के "ठाकुराई " चल रही..(इस पर विवाद नहीं होना चाहिए)
या रात में सूरज की कमी की बात कह बिसार दे...✍️
पम्मी सिंह 'तृप्ति'