Dec 31, 2017

ये अक्सर मिलती कम टकराती..









कई मर्तबा हमनें जिन्दगी को ताकिद की,”बाज..आ.. अपनी चुगलखोरी से..”
पर "नहीं.. "
ये अक्सर मिलती कम टकराती ज्यादा है..बस एक मैं ..घास की तरह हर दफा उग आते हैं
फिर.. हरी भरी बन बड़े नाज़ से उठकर, बनकर संभल जाते हैं.. कि कहीं..
स्याही खत्म होने पर लिखना थोड़े ही छोड़ा जाता है..
बहुत बड़ा हिस्सा छीन कर ये साल गुजर गया..
मैं  ठिठकी रही …आवाज आयी कि “तू अइबै न पम्मी” मैं बोली आउँगी..जो पहली फ्लाइट मिलेगी मैं आउँगी”
मैं पहुंच भी गई पर आप न आँख खोली न बोली..
अपनी तरफ से यथासंभव हम बहनें सभी फर्ज पूरा किया…
पर क्या करें.. यही समय है जब हम इतने असहाय हो जाते हैं..
कोई अदृश्य शक्ति(भगवान) तो है..वर्ना फोन से तो मैं बहुत पास थी पर..
इन हथेलियों में बचे खुचे सुख ही बड़े दु:ख को बर्दाश्त करने की शक्ति देतें हैं।कई
बार उदासियों से मन भरा पर जिंदगी की जिम्मेदारियाँ  कहाँ फुरसत देती है।
मैंने भी कहाँ.. वाह!जी..

"इल्जाम भी आपकी,अना भी आपकी 
तो क्या? जीने के बहाने भी हमारे न होगें..।"

शुक्रिया ..हर गुजरते लम्हों का जो हम

 वक्त की धार
और लोगों के वार और प्यार
 को समझ तो गए..।

थोडा मुस्कुरा लो (सभी बहनों से)
नहीं तो अभी मम्मी बोलेगी “मुँह बनाके काहे बैठल बाड़ूस..
उठबू कि न..साँझ के समय बिछावन छोड़ो..।“
नए साल की शुभकामनाओं के साथ..


“लीजिए वक्त भी चल कर
नए साल में आ गया 
जिसके उनवान से मुस्करातें हैं
तो क्यूँ न शादाबों की आहटें हो
सलीका, अदब की बातें हो
पर बे-सबब और बे-हिसाब बातों पे 
शानदार इबारतें न हो..
हर गुजरते पलों से
आने वाले पलों की हमनें  दुआएं मांगी
कुछ इस तरह से हमारी नव वर्ष की बातें हो..।“
                                              पम्मी सिंह

Dec 17, 2017

रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही..




हमारी किस्सागोइ   न हो..इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की 
पनाह में आ गए हैं,
अजी छोड़िए.. 
उजालों को..
यहाँ पलकें भी मूंद जाती है,
अंधेरा ही सही.. 
पर आँखें तो खूल जाती है,
हमने भी उम्मीद कब हारी है?
फिर नासमझी को  
सिफत समझदारी से समझाने में
ही कई शब गुजारी  हैं,
अब सदाकत के दायरे भी सिमटे 
तभी तो झूठ में  सच के नजारें हैं
जख्म मिले हैं अजीजों से
निस्बत -ए-खास से कुछ दूरी बनाए रखे हैं
छोड़िए इन बातों को..
जिन्दगी ख्वाबों ,ख्यालातों और ख्वाहिशों 
कहाँ गुज़रती है,
रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही
समझदारी है ,इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की 
पनाह में आ गए हैं..
                      ©पम्मी सिंह..

Nov 17, 2017

मजाल है जो ज़ेहन से रुखसत हो..





क्यूँ नहीं भूल जाती
 बेजा़र सी बातों को हजारों बातें तो रोज़ ही होती रहती.. चलो एक ये भी सही..
पर न..मजाल है जो ज़ेहन से रुखसत हो
दिमाग में तो किराएदार के माफिक घर ही कर गई कई दफा गम ख्वार ख्यालातों को उतार फेका पर नहीं..
छोड़ो भी,भूल जाओ,कोई बात नहीं, आगे भी बढों..कहना जितना आसान असल में भूलना उतना ही मुश्किल..
बस एक छोटी सी ख्वाहिश है कि भूलने की कोई दवा इज़ाद हो जाए..
तो फिर क्या बात होगी..
पर वो खुल्द मयस्सर न होगी..
हाँ.. जहीनी  तौर पर आराम तो होगी..
सबसे बड़ी बात कि ये जो हमारी आँखें हैं  न..
कम से कम मेढक की आँखों की तरह तो नहीं बनती..
 मानो अभी ये हथेलियों पर आ कर उछल कूद मचाने लगेगी..
उ..हूँ..
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ.. मेरी बातें कमजर्फ सी लग रही होगी..
पर मैं आज यही लिखूंगी..
भूलने वाली बातें याद और याद रखने वाली बातें भूलकर लगी तारे गिनने क्यूँ कुछलोग हद पार कर जाते ..
बितता लम्हा बिसरे नहीं..
बहुत दिन हुए ..खु.. के गालों पर पड़ते डिम्पल को देखे..रब के हिटलिस्ट में हूँ शायद..
अधखुले किताबें, अखबारें, एक कप..ये क्या है,
क्यूँ है..कौन सा सलीब है..

ऐसी भी जहीनी क्या?
बेफिक्री वाली हंसी हंसना चाहती हूँ ..इत्ता कि
सामने वाले की हंसी या तो गायब हो (मानो कह  रहा लो मेरे हिस्से की भी ले लो)या हंसने लगे
और मन के किसी कोने में बैठा भय बस..सहम ही जाए..
मुसाफिर हूँ बस.. खुशनसीब शज़र की 
दरकार तो बनती है..
इसमें कुछ गलत तो नहीं..  क्या ?
ज़िंदगी का सवाल और  सफ़लता  नफा नुकसान में ही क्यूँ समझ आता है।
                                                                                                   पम्मी सिंह.., ✍



Oct 25, 2017

लर्जिश है हर शब्दों में ..,













               💮💮

मौन है गर्जन है

 रत है विरक्त है

शून्य है..

शब्द है पर खामोश है

नत है ..

हर ऊषा की प्रत्युषा भी

जब्र वक्त है ..

वक्त यहाँ बडा कम है

रमय है अब राम भी

कहाँ हो तुम

यहाँ है हम

बोझिल है हर पल भी

हैरान हूँ ..

जिंदगी की सास्वत सत्य से

कि सुनते थे जिसे रोज

अब ,बहाना बचा नहीं मुलाकात का,

पर कर्तव्यनिष्ठ है

निष्ठुर मन भी,

गीला हैं..

 मन का एक कोना

इन धूप के गलीचों में भी,

गुजरते वक्त के साये से

मौन अभ्यावेदन है कि

यूँ ही संभालें रहते हैं

रिश्तों के भ्रम को

जो तू है आसमान में

और जमीन पर मैं पड़ी,

उलझ रही हूँ

सजदों के लिए,

लर्जिश है

हर शब्दों में क्योंकि

कभी दुआ  नहीं माँगी थी

 आप के होते हुए...

जीना है ..

 हाँ जीना है बढना है

टीसते दुख के साथ

तिरोहित हो

पर हम में ही बसी हो

अभ्यंतर,अभ्यंतर,अभ्यंतर..।

                                      ©पम्मी सिंह... ✍ 

#काव्य,#कविता,#शब्द,#माँ

Sep 26, 2017

जश्न की हर बात ..






अभी-अभी शहर का मौसम बदला है
जश्न की हर बात पर 
आज़माईशों का रंग बदला है..

गुनाहों के देवता से रफ़ाकत जता
मौजूद हालातों का गम निकला है..

क़ाइल करूँ किस शाह,सियासत पे

  शहर ,दहर ,खबर में रोजगार का तुफ़ निकला है..


गश खा रहा है बागबां भी
परस्तिशों के मौसम में
नुमाइशों का भी दम निकला है

पशेमान है नारास्ती भी..
काविशों के दौर में
हर शय  में अब
साजिशों का भी ख़म चला है...
                                      ©पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️


  • नारास्ती= कपटता, बेईमानी, 
  • परस्तिश= पूजा, अराधना,काविश -प्रयत्न,
  • पशेमान=  लज्जित
  • तुफ़: .श्राप,बरबाद curse,  शहर-ए-शिकस्ता   ..तुटा हुआ शहर, काइल ः सहमती agree

Sep 16, 2017

तफसील है ये लफ्ज़...







पन्नों पे तख़य्युल के अक्सों को उकेर कर देखो ,
कमाल है, इन अल्फाज़ों में ,
जो कई ज़िंदगी के सार लिख जाते हैं..,
रह कर इन हदों में
लफ्ज़ दिखा जाते .. कई सिल - सिले,

रखती हूँ, 
अल्फाजों में खुद का इक हिस्सा
तो निखर जाती है ख्यालों की ताबीर..,

तफसील है ये लफ्ज़, अख्यात जज्बातों का
शउर वाले जबान रख कर सफ्हों पर बिखर जाती..

अल्फाज़ है तर्जुमानी की, 
सो स्याही के सुर्खे-रंग को हिना कर देखों..

लहजे तो इनके असर होने में हैं,
हमनें तो बस आज लिखा है..
इन सफ़हे-आइना पर,

 क़मर आब की जिक्र कर
तुम अपना कल लिख देना
           ..                  © पम्मी सिंह

तख़य्युल- कल्पना, तफसील -विस्तृत, क़मर-चांद


Aug 21, 2017

तुम चुप थी उस दिन....




तुम चुप थीं उस दिन..


पर वो आँखों में क्या था...?



जो तनहा, नहीं सरगोशियाँ थीं, कई मंजरो की,


तमाम गुजरे, पलों के फ़साने दफ़्न कर.. 



लफ्ज़ों  ने उन लम्हों से शिकायत की.


जिंदगी की राहों से जो गुज़री हो 


जो ज़मीन न तलाश कर सकी ,


मसाइलों की क्या बात करें...


ये उम्र के हर दौर से गुज़रती है.



अजीब कश्मकश थी...


हर यादों और बातों से निकल कर भी


अतीत के मंज़र को ढूँढती थी वो आँखें..


पम्मी सिंह

Jul 15, 2017

न जाने क्यूँ पेश आती..


 न जाने क्यूँ पेश आती..


कभी हमें भी यकीन था..,पर कभी-कभी

जिंदगी न जाने क्यूँ पेश आती है

अजनबियों की तरह

इन आँखों में बसी  ख्वाबों के, मंजर 

अभी बाकी है

पीछे रह गए तमाम हसरतों के, अन्जाम

अभी बाकी है

वो क़हक़हा जो ठिठकी हैं दरख्तों पर,उनके 

खिलने की अब बारी है

जुस्तजू हैं , सबकुछ में से कुछ के पाने की

शनासा  हूँ कि,
मैं हूँ छोटीसी लहर

छोटी लहरों पर ही, पड़ते हैं पहरे और

जिन्दगी की ज़ोर - हवा हैं कायम..

पर मेरी फसाने की, मनमानी 

अब भी बाकी है
                                       ©पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️                                


Jun 26, 2017

बनेगी अपनी बातें...

नहीं  दिखती वो राहेंजिन्हें दिखाया किसी और ने..
था तो, वो एक इशारा,
कुछ लंबी, थोड़ी छोटी, कुछ आड़ी, थोड़ी तिरछी या थी बंद...
बनेगी अपनी बातें...
जब  उन राहों पर चल पड़ेगें हमारे कदम...

                                  ©पम्मी सिंह

Jun 15, 2017

फितूर है..ये,




फितूर है..ये,  
कई दफा सोचती हूँ.. बड़ा अच्छा होता जो 'मैं' तुम्हारे 
किरदार में होती..

मैं तुम होती और मेरी जगह तुम..
और ...मैं नाहक जरा -जरा बात पे चिल्लाती, बोलती..
कुछ भी कर गुज़र जाती और..
 तुम चुपचाप सुन लेते..

गिरा कर कुछ खारे मोती. 
सफ्हों में खुद को तलाशते,

मैं..चुपके से देखती..
अनदेखी कर 
तुम क्या कर रहे हो..
.
शिलाओं के माफिक बन 
सबको समझती रहती..

जी,.. ये फितूर ही तो है..
जो सोची.. सोच सोचकर फिर सोची,
क्या?तुम म़े भी वो हुनर होगा..

जिससे खामोश लफ्ज़ों को पढा करते है....

लो..ये सोच फिर चली...
बेजा़र सी पांव पटक पटक कर..
और मैं!.. 
आराम कुर्सी पर
फितूर सोच, 
नींद से बोझिल पलकें...
जो खुली 'संजू' की आवाज़ ..
"बीसन जूता मरबै और एक गिनबै"

(संजू गृह सहायिका अपनी बच्ची को धमकाने 
के लिए अक्सर बोल जाती)

मुस्कराहटों को लबों पर लाकर बोली
हाँ..जी फितूर है..

बाम पर चाँदनी ने भी  दस्तक दी है..
'वो' भी  दफ्तर से आने वाले है '
मुझे भी अपनी पाक कला को आज़माना है...

ये फितूर भी  न  ...कहाँ से कहाँ तक ले जाती...



                                                                   पम्मी

(काल्पनिक  उड़ान .)


May 25, 2017

सुंदर शब्द माँ..









       हृदयविदारक दृश्य

मृत मां जाते जाते भी बच्ची को सीने से चिपका कर रखी .

फलक  पर  लिखा  सुंदर  शब्द  माँ  को  चरितार्थ  करती  ये  तश्वीर 

 निशब्द  कर  देती  है। विधाता   क्या  ऐसा  दिन  भी 


दिखाता  है।  जाते - जाते  भी  बच्चे  की  पेट  भर  गई  और  वो  मासूम  बच्ची..

..
क्या  कहूँ।   विधाता  अगर  दिल  में  नहीं  तो  कहां  है  तू।

May 19, 2017

इन्सान में अख्यात खुदा..




न जाने क्यूँ

हम खुद की ख्यालात लिए फिरते हैं कि

हर इन्सान में अख्यात खुदा बसता है

तो वो जो इन्सान है ,इन्सान में कहाँ रहता है?

जिनकी अलम होती शफ़्फाफ़ की

कश्तियाँ न कदी डगमगाई होगीं,

यहाँ हर शख्स कशिश में भी

सोने को हिरण में ढूंढ रहा

क्या पता जाने कहाँ है ?

वो इन्सान जिसमें खुदा होगा..

शायद..

वो जो खाली मकान है मुझमें,

वहाँ इन्सान में खुदा रहता होगा..

इस लिए 'वो 'सदाकत से गुम है,बुत है

खामोशी से फकत निगाह-बाह करता है..

हम खुद की ख्यालात.......
                                  ©पम्मी सिंह

Apr 28, 2017

शनासाई सी ये पच्चीस..


ये है हमारी रूदाद..

शनासाई सी ये पच्चीस वर्ष शरीके-सफर के साथ


सबात लगाते हुए


असबात कभी अच्छी कभी बुरी की..


ताउम्र बेशर्त शिद्दत से निभाते रहे..


सोचती हूँ ये जिंदगी रोज़ नई रंगो में ढलती क्यूँ हैं..

कई दफ़ा कहा..


कभी इक रंग में ढला करो..


गो एक हाथ से खोया तो दूसरे से पाया


हादिसे शायद इस कदर ही गुज़र जाती है..


शादाबों का मलबूस पहन


तरासती हूँ उस उफक को जो धूंध से परे हो..


मामूल है ये जिंस्त हर ख्वाब-तराशी के लिए


सबब है उल्फत की जिनमें सराबोर है चंद


मदहोशियाँ,सरगोशियाँ,गुस्ताखियाँ और बदमाशियाँ


वाकई.. पर मौत को वजह नहीं बनाने आई हूँ।

                                                             ©पम्मी सिंह 
                                                                  

(रूदाद-story,शनासाई-acquaintances,

सबात-stability,असाबात-दावा,गो-यद्यपि
शादाबों-greenblooming,मलबूस-पोशाक dress,उफक-क्षितिज, मामूल-आशावादी,सबब-कारण, उल्फत-प्रेम)

http://www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/368/kavya-kanchhi.html

Apr 24, 2017

विमोचन समारोह


जी,नमस्कार

मैं आप सब के साथ एक खुशी साझा कर रही हूँ मेरी

पहली काव्य संग्रह 'काव्यकांक्षी' की पुस्तक विमोचन
समारोह दिनांकः 19 अप्रैल 2017 को (सेल ऑफिसर वाइफ एसोसिएशन) स्कोप मिनार ,लक्ष्मी नगर,
 नई दिल्ली में हुई..

मेरे लिए यह निसंदेह रोमांचित करनेवाला क्षण जो मुझे w/o SAIL chairman
श्रीमती आरती सिंह एवम् गणमान्य जनो की उपस्थिति में प्राप्त हुआ।

इस किताब में जिंदगी की तमाम पहलुओं को छूती हुई रचनाएँ है।

वो कहते है न...
हमारे होने और बनने में कई लोगों के
 साथ-साथ भावों और अहसासों का सहयोग रहता है।
आप इसे पढे तो बस मुस्करा के..
साथ ही अपनो को और मुझे (किताब) याद के साथ साझा जरूर करें।
धन्यवाद।

http://www.amazon.in/dp/9386163098

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Mar 24, 2017

इक मुखौटा



सोचती हूँ खूबसूरत कहूँ या कुछ और

हर शख्स मिला

चेहरे पर चेहरा लगाए.
.
पर वो इंसान का चेहरा नहीं मिला

हर हँसी के पीछे

एक और हँसी

रही कसर हुई पूरी...

जब बेहरुपिए से इक मुखौटा मांग कर,

गिरती हूँ बस

इन शतरंजी चाल से

शउर नहीं कि खुद को समझाउँ

शायद इतनी समझदार भी नहीं..
                                               पम्मी


Mar 7, 2017

महिला दिवस

यह एकदिन की इज़्ज़त कुछ अच्छी नहीं लगती

 बात समानता की हो तो बात कुछ और होती

प्रतीक्षा उस दिन की,जब अंतराष्ट्रीय

'समानता दिवस' का आगाज़ हो...
                                          पम्मी 

Feb 24, 2017

बस यहीं हूँ..



हूँ ..

बस  यहीं  हूँ..


कहीं  और  नहीं  जरा  भंवर  में  पड़ी  हूँ...


दरपेश  है आसपास  की  गुज़रती   मसाइलो  से


गाहे  गाहे  घटती  मंजरो  को  देख,


खुद  के  लफ्ज़ों  से  हमारी  ही  बगावत  चलती  है


गो  तख़य्युल  के  साथ-साथ  लफ़्जों  की  पासबानी  होती  है,  


कुछ  खास  तो  करती  नहीं.. .पर


खुद  बयानी  सादा-हर्फी  पर  हमारी  ही  दहशत  चलती  है,


क्या  करु...


खिलाफ़त  जब  आंधियाँ  करती  है  तो  जुरअत  और    बढती  है। 

                                                                                             ©पम्मी सिंह  

(दरपेश -सामने,   मसाइलो -मुसिबत,  तख़य्युल -विचारो, ,पासबानी-पहरेदारी,जुरअत-हौसला )




                                                                                                       

                                

Feb 4, 2017

संयोग..



कुछ शक्तियाँ विशाल व्यापक और विराट् है

जिसमें हम खुद को सर्वथा निस्सहाय पाते हैं
हाँ...वो 'संयोग ' ही है

जो हमारे वश से बाहर होती है
बादलों के चाँद,सितारें, राशियाँ और वो एक समय

न जाने ब्रह्मांड में छुपी तमाम शक्तियाँ..
मिलकर इक नयी चाल चलती .. जहाँ हम

चाह कर भी कुछ न कर सकने की अवस्था में पाते हैं तब..

.कुछ टूटे सितारों की आस में
हर रात छत से गुज़र जाती हूँ

आधे -अधूरे बेतरतीब इखरे-बिखरे
पलों,संयोग को समेटते हुए न जाने

कई संयोग वियोग में बदल ..
रह जाती है बस वही इक ...कसक

जी हाँ .. ये कसक

अजीब सी कशाकश की अवस्था
जब्त हो जाती है..
फिक्र पर भी बादल मडराते है,

कुछ सुनना था,जानना था या ...
.बस जरा समझना था
पर...

देखों यहाँ भी संयोग और समय ने अपनी
महत्ता बता दी...

हर जानी पहचानी शक्ल अचानक अज़नबी बन जाती है..

वाकिफ हूँ इस बात से

कुछ शक्तियाँ विशाल व्यापक और विराट् होती है..
                                                                             ©पम्मी सिंह'तृप्ति'      
                                                                           



Jan 18, 2017

क्या से आगे क्या ?

क्या से आगे क्या ?


क्या से आगे क्या ?

आक्षेप, पराक्षेप से भी क्या ?

विशाल, व्यापक और विराट है क्या

सर्वथा निस्सहाय नहीं है ये क्या

उपायो में है जबाब हर क्या का
,
छोड़ो भी..

प्रश्न के बदले प्रश्न को

लम्हो की खता वर्षो में गुज़र जाएगी..

पत्थरो को तराश कर ही बनती है,

जिन्दगी के क्या का जबाब.
         

अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...